भारत संविधान दिवस 2021
संविधान दिवस: दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के 'धर्मग्रंथ' के बारे में कुछ खास बातें
हमारे देश के लोकतंत्र को संचालित करने वाली किताब का नाम है भारतीय संविधान। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के धर्मग्रंथ यानी भारत के संविधान को आजादी के आंदोलन के दौरान जागृत हुई राजनीतिक चेतना का परिणाम कहा जाए तो गलत नहीं होगा। भारतीय संविधान में देश के सभी समुदायों और वर्गों के हितों को देखते हुए विस्तृत प्रावधानों का समावेश किया गया है।
इसी का परिणाम है कि आजादी के 74 वर्षों के बाद भी भारतीय संविधान अक्षुण्ण, जीवंत और सतत क्रियाशील बना हुआ है। भारतीय संविधान को संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को ग्रहण किया था और इसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया था। 26 नवंबर को संविधान दिवस है और इस मौके पर हम आपको बताने जा रहे हैं हमारे संविधान से संबंधित कुछ खास बातें..
क्या होता है संविधान, क्या है अहमियत
सामान्य तौर पर, संविधान को नियमों और उपनियमों का एक ऐसा लिखित दस्तावेज कहा जाता है, जिसके आधार पर किसी देश की सरकार काम करती है। यह देश की राजनीतिक व्यवस्था का बुनियादी ढांचा निर्धारित करता है। हर देश का संविधान उस देश के आदर्शों, उद्देश्यों और मूल्यों का संचित प्रतिबिंब होता है। संविधान महज एक दस्तावेज नहीं है, बल्कि यह समय के साथ लगातार विकसित होता रहता है।
दुनिया का सबसे लंबा लिखित संविधान
भारतीय संविधान दुनिया का सबसे लंबा लिखित संविधान है जो तत्त्वों और मूल भावना के नजरिए से अद्वितीय है। मूल रूप से भारतीय संविधान में कुल 395 अनुच्छेद (22 भागों में विभाजित) और आठ अनुसूचियां थीं, लेकिन विभिन्न संशोधनों के परिणामस्वरूप वर्तमान में इसमें कुल 448 अनुच्छेद (25 भागों में विभाजित) और 12 अनुसूचियां हैं। इसके साथ ही इसमें पांच परिशिष्ट भी जोड़े गए हैं, जो पहले नहीं थे।
इस तरह तैयार हुआ संविधान का मसौदा
भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने वाली समिति की स्थापना 29 अगस्त 1947 को हुई थी। डॉ. भीमराव आंबेडकर को इस समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। यही कारण है कि डॉ. आंबेडकर को संविधान का निर्माता भी कहा जाता है। भारत में संविधान के निर्माण का श्रेय मुख्यतः संविधान सभा को दिया जाता है। संविधान सभा के गठन का विचार सर्वप्रथम वर्ष 1934 में वामपंथी नेता एमएन रॉय ने दिया था।
1946 में ‘क्रिप्स मिशन’ की असफलता के बाद तीन सदस्यीय कैबिनेट मिशन भारत भेजा गया था। कैबिनेट मिशन की ओर से पारित एक प्रस्ताव के माध्यम से अंततः भारतीय संविधान के निर्माण के लिए एक बुनियादी ढांचे का प्रारूप स्वीकार किया गया, जिसे ‘संविधान सभा’ नाम दिया गया। इसके 284 सदस्यों ने 24 जनवरी 1950 को दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए थे। इसे पारित करने में दो साल, 11 महीने और 18 दिन लगे थे।
संविधान में दिए गए हैं छह मौलिक अधिकार
संविधान के तीसरे भाग में छह मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। वस्तुतः मौलिक अधिकार का मुख्य उद्देश्य राजनीतिक लोकतंत्र की भावना को प्रोत्साहन देना है। यह एक प्रकार से कार्यपालिका और विधायिका के मनमाने कानूनों पर निरोधक की तरह कार्य करता है। मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में इन्हें न्यायालय के माध्यम से लागू किया जा सकता है। इसके अलावा भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्षता को भी इसकी प्रमुख विशेषता माना जाता है। धर्मनिरपेक्ष होने के कारण भारत में किसी एक धर्म को विशेष मान्यता नहीं दी गई है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना
भारत के संविधान की प्रस्तावना को दुनिया में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इसे अमेरिका के संविधान से प्रभावित माना जाता है। भारत के संविधान की प्रस्तावना यह कहती है कि संविधान की शक्ति सीधे तौर पर जनता में निहित है। भारत का संविधान देश का सर्वोच्च कानून है। यह सरकार के मौलिक राजनीतिक सिद्धांतों, प्रक्रियाओं, प्रथाओं, अधिकारों, शक्तियों और कर्त्तव्यों का निर्धारण करता है।
1976 में जोड़ा गया धर्मनिरपेक्ष शब्द
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1976 में 42वें संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ा गया था। संविधान से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न संविधान की व्याख्या अथवा अर्थविवेचन से जुड़ा हुआ है। नियमों के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय संविधान का अंतिम व्याख्याकर्ता या अर्थविवेचनकर्ता है। सर्वोच्च न्यायालय ही संविधान में निहित प्रावधानों और उसमें उपयोग की गई शब्दावली के अर्थ और निहितार्थ के विषय में अंतिम कथन प्रस्तुत कर सकता है।
संवैधानिक व्याख्या और उसका महत्त्व
‘संवैधानिक व्याख्या’ का मतलब संविधान के अर्थ या अनुप्रयोग से संबंधित विवादों को हल करने की कोशिश के रूप में संविधान के विभिन्न प्रावधानों की विवेचना करने से है, जिससे प्रावधानों के दायरे को विस्तृत किया जा सके। संविधान कोई जड़ दस्तावेज नहीं होता, बल्कि यह एक गतिशील दस्तावेज है, जो समाज की बदलती आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए समय के साथ विकसित और बदलता रहता है।
संसद जिन कानूनों को पारित करतीहै उन्हें आसानी से लागू किया जा सकता है और उतनी ही आसानी से उन्हें निरस्त भी किया जा सकता है जबकि संविधान की प्रकृति कानून से काफी अलग होती है। संविधान का निर्माण भविष्य को ध्यान में रखकर किया जाता है और उसे निरस्त करना अपेक्षाकृत काफी कठिन होता है। इसीलिये मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार, इसकी व्याख्या की जानी आवश्यक होती है।
मौजूदा दौर में संवैधानिक व्याख्या
आज का समय संवैधानिक व्याख्या के विकास का चौथा चरण कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे कई फैसले सुनाए हैं जिनमें व्यक्ति के अधिकारों को मान्यता देकर सामाजिक परिवर्तन के युग की शुरुआत की गई है। बीते वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने 10-50 वर्ष की महिलाओं को केरल के सबरीमाला मंदिर में प्रवेश करने से रोकने वाले प्रतिबंध को हटा दिया था और कहा था कि ‘भक्ति में लिंगभेद नहीं हो सकता’। वहीं, साल 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था।
संविधान के अभाव में कैसी होगी स्थिति
सामाजिक विनियमन की पहली परिकल्पना थॉमस हॉब्स द्वारा सामाजिक समझौते के सिद्धांत में की गई जिसको मनुष्य की प्राकृतिक अवस्था (जहां मनुष्य को दो ही अधिकार प्राप्त हैं, पहला- अपने जीवन की रक्षा का अधिकार और दूसरा- अपने जीवन की रक्षा के लिए कुछ भी करने का अधिकार) की परिस्थितियों से बेहतर सामाजिक प्रगति के क्रम में देखा गया। प्राकृतिक अवस्था की परिस्थितियों में समाज में व्यापक स्तर पर अव्यवस्था व्याप्त थी क्योंकि मनुष्य स्वयं की रक्षा के नाम पर किसी दूसरे के अधिकारों का क्षण भर में ही हनन कर देता था। प्राकृतिक अवस्था की स्थिति 'शक्ति ही सत्य है' पर आधारित थी। इसलिए इससे लोगों को हमेशा अपने प्राण, अधिकार और संपत्ति छिन जाने का संशय रहता था। अतः लोगों ने सामूहिक स्तर पर राजनीति और सामाज की बेहतर व समन्वित व्यवस्था के लिए सामाजिक समझौते के सिद्धांत पर सहमति व्यक्त की, जिसमें सभी लोगों द्वारा एक-दूसरे के अधिकारों के सम्मान की व्यवस्था स्थापित की गई।