‘बर्थ डे’ न आता तो मैं उससे तब भी न बोलती।
मालूम है, उसने क्या किया था? उसने न जाने कैसे एक कागज पर गधे की तस्वीर बनाकर मेरी ड्रेस के पीछे चिपका दी थी। उस पर लिखा था-“मैं पत्थर हूँ। बच के निकलना!” सारे दिन सब बच्चे मेरा मजाक बनाते रहे-‘भई, बच के चलो, कहीं लग न जाए!’ और शाम को घर जाने पर मम्मी ने वह कागज निकालकर मुझे दिखाया था। यह बहादुरे का बच्चा है न हमारा नौकर, मुझे देखकर हँसते-हँसते लोटपोट हो गया था। बदतमीज कहीं का! मुझे ऐसा रोना आया था कि क्या बताऊँ!
वीनू और इन सबने मुझे तंग न किया होता, तो मैं कभी भी इन सबको ‘अप्रैल फूल’ बनाने की न सोचती। मैं हरगिज ऐसी बुद्धूपने की बातों में न पड़ती, पर क्या बताऊँ....।
जनवरी में हमारे पड़ोस की कोठी में एक एस.डी.ओ. साहब बदली हो कर आए थे। उनकी लड़की रेवा उम्र में हमारे ही बराबर है। पर वह मथुरा में ही अपनी बुआ के पास रह गई थी। लेकिन होली पर वह अपने पापा-मम्मी के पास आ गई थी। जिस दिन मथुरा लौटने वाली थी, उसी दिन उसे तेज बुखार आ गया और टायफायड हो गया। अब ठीक होकर वह चार-पाँच अप्रैल को वापस मथुरा जाने वाली थी।
मैंने भी सोचा कि रेवा के जन्मदिन के बहाने पिछले साल का बदला सबसे एक साथ लिया जाए- ऐसा बदला कि सारे के सारे हमेशा याद रखें!
पापा के एक दोस्त नाई की मंडी में रहते हैं। उनका लड़का परेश तेरह साल का है, मुझसे तीन-चार साल बड़ा। मैंने उसी को अपना हमराज बनाया। उसने बड़े सुंदर-सुंदर अक्षरों में एक निमंत्रण पत्र लिखा-रेवा की मम्मी की तरफ से, कि सब बच्चों को रेवा के जन्मदिन के उपलक्ष में पहली अप्रैल को चाय का निमंत्रण है। सभी बच्चे जरुर-जरुर आएँ। नीचे निमंत्रित बच्चों के नाम थे, जिनमें सबसे ऊपर मेरा नाम था। (जिससे किसी को मेरे ऊपर शक न हो) नीचे एक छोटी-सी सूचना भी थी कि कोई भी रेवा से इसका जिक्र न करें क्योंकि अचानक सबको देखकर उसे बड़ी प्रसन्नता होगी। यह सब लिखवाने और किसी से न कहने के लिए परेश को पूरे डेढ़ रुपये वाली चाकलेट की घूस देनी पड़ी। मैंने सोचा था, आधी चाकलेट तो वह मुझे देगा ही और इस तरह मेरे आधे पैसे वसूल हो जाएँगे, पर उसने सिर्फ एक चौकोर टुकड़ा मेरे हाथ में थमा दिया, बाकी सब खुद हड़प गया। नदीदा कहीं का!
अब सवाल था, कि यह निमंत्रण किससे भिजवाया जाए। सो मैंने रेवा के घर की महरी को पकड़ा और खूब समझा दिया कि सिवाय रेवा के वह सबके पास इस चिट्ठी को देकर दस्तखत करा लाए। पर वह क्यों करने लगी मुफ्त में मेरा काम? और उसको भी पूरा एक रुपया इस काम के लिए देना पड़ा। मेरी गुल्लक में सवा तीन रुपये जमा हुए थे, उसी में से यह सब खर्चा किया था मैंने।
अब वीनू, पिंकी, छुन्नू, दीना, पाँचू सभी बड़े खुश। मैं भी बड़ी खुश। इसी के लिए तो ढ़ाई रुपये खर्च किए थे। जब भी सब मिले, तो यही बातें हुईं कि कौन क्या पहन कर पार्टी में जाएगा। रेवा के लिए कौन क्या उपहार ले जाएगा? पिंकी फाउंटेन पेन दे रही थी। वीनू की माँ एक राइटिंग पैड और लिफाफे लाई थी- यह सोचकर कि रेवा मथुरा में रहती है माँ-बाप को चिट्ठी लिखने के काम आएगा। साथ में तस्वीरों वाले पोस्ट कार्डों का सेट भी था। छुन्नू ने एक ग्लोब खरीदा था। दीना और पाँचू क्या ले जाएँगे, पता नहीं था, क्योंकि उन दोनों ही के पापा अभी तक कुछ लाए नहीं थे। मैंने भी कह दिया कि ‘मेरेपापा ने कहा है कि कोई बढ़िया चीज लाएँगे, देखों क्या लाकर देते हैं? मन ही मन मुझे बड़ी हँसी आ रही थी कि सारे के सारे खूब उल्लू बन रहे हैं।
दूसरे दिन ही पहली अप्रैल थी। सुबह से मेरे मन में शाम का नजारा देखने की बेचैनी थी। जब कि सबके सब अपने-अपने प्रेजेंट लेकर जाएँगे और रेवा और उसकी मम्मी परेशान-सी सब के मुँह ताकेंगी और घबड़ा कर कहेंगी कि ‘अरे, हमने तो किसी को नहीं बुलाया था। रेवा का जन्म दिन तो आज है भी नहीं।‘ उस समय सबकी खिसियानी सूरतें देखने काबिल होंगी। वाह, क्या मजा आएगा! सारे के सारे नदीदे मिठाई खाने के बदले पिटा-सा मुँह लेकर लौटेंगे।
कल पिंकी कह रही थी कि कहीं हमें ‘अप्रैल फूल’ तो नहीं बनाया जा रहा है, तो पाँचू और दीना दोनों ही बोले-“वाह, रेवा की मम्मी हमें क्यों बेवकूफ बनाने लगीं? यदि रेवा बुलाती तो कोई बात थी सोचने की।“ सभी ने यह बात मान ली थी।
सारे दिन स्कूल में मेरा मन नहीं लगा। लेकिन एक बात सबसे मुश्किल थी। वह यह कि मुझे तो मालूम ही है कि सबको बेवकूफ बनाया जा रहा है, इसलिए मैं जाऊँ या नहीं। बिना गए सब की खिसियानी सूरतें देखूँगी तो कैसे? जाऊँ तो कुछ प्रेजेंट ले जाना चाहिए या नहीं?
शाम को घर आकर मैंने जल्दी से एक डिब्बा लिया। उसमें खूब से कागज भरे, बीच में कागज लिपटा एक पत्थर रखा। उस पर लिखा ‘फर्स्ट अप्रैल फूल!’ फिर डिब्बे पर एक लाल कागज चढ़ाया और सादी-सी फ्रॉक पहन कर रेवा के घर चल दी। सोचा था बाहर से ही रेवा को दे दूँगी कि मुझे जरुरी काम से जाना है, मैं आ न सकूँगी।
रास्ते में सोचती जा रही थी कि ये लोग लौटते हुए या रेवा के घर से निकलते हुए दिखाई दे जाएँ, तो ही मजा रहे। पर न तो मुझे रास्ते में कोई दिखा, न रेवा के घर से निकलता हुआ ही मिला। हाय राम! कहीं ऐसा तो नहीं कि वे लोग आए ही न हों और सबको पता लग गया हो कि वे बुद्धू बनाए जा रहे हैं।
इसी उलझन में मैं बाहर के दरवाजे तक पहुँची, तो सामने महरी बैठी तमाखू खा रही थी। मुझे देखते ही काली-काली बत्तीसी निपोरकर बोली“आवौ्, मिन्नी रानी, आवौ। सबकै सब खाय रहे हैं। तुमहु जावौ, माल उड़ावौ। तुम्हार चिठिया ने तो खूब काम बनावौ।“
“क्या सब खा रहे हैं?” मैं हैरान-सी महरी का मुँह ताकती रह गई। “क्या कह रही है तू?”
तभी रेवा मुझे दरवाजे पर देखकर भागती हुई आई। “आओ, मिन्नी, आओ। तुमने बड़ी देर कर दी। तुम्हारा इंतजार करते-करते अभी-अभी खाना शुरु किया है।“
मैं घबड़ा गई। “क्या तेरा सचमुच आज जन्म दिन है।“
“अरे हाँ, सच ही तो है। और तू क्या मजाक समझ रही थी कि आज सबको ‘अप्रैल फूल’ बनाया जा रहा है?”
तभी पाँचू हाथ में मिठाई-नमकीन भरी प्लेट लेकर बाहर आ गया। (हाय! कितनी सारी चीजें थीं उसमें- सब मेरी पसंद की!)
मुँह में रसगुल्ला ठूँसते हुए पाँचू बोला, “वाह, मिन्नी रानी, इतनी देर कर दी तुमने! मैं तो रेवा से कह रहा था कि मिन्नी नहीं आएगी। उसकी प्लेट भी मुझे ही दे दो।“ फिर मेरे हाथ के डिब्बे पर झूकते हुए बोला, “वाह, बड़ा भारी प्रेजेंट ले कर आई हो तुम तो! क्या लाई हो इसमें?”
पत्थर लाई हूँ- मैंने मन ही मन कहा और रेवा जो मुझे पकड़ कर अंदर खींच रही थी, उसके हाथों से अपने को छुड़ाकर मैंने एकदम घबड़ाकर कहा, “रेवा, मैं तो समझी थी कि हमें बुद्धू बनाया जा रहा है।“
“हट पगली कहीं की, मम्मी भी तुम लोगों को बुद्धू बना सकती हैं क्या? पर देखो न, हर साल मम्मी से कहती थी पर उन्होंने कभी मेरा जन्म-दिन नहीं मनाया। कह देती थी- “पहली अप्रैल’ को कोई नहीं आएगाय सब समझेंगे “अप्रैल फूल” बना रहे हैं। अब की देखो, मम्मी ने बिना मुझे बताए ही सबको बुला लिया। सच, मम्मी बहुत अच्छी हैं.....अच्छा, अब चलो न.....” उसने अब फिर मेरा हाथ पकड़ लिया। पर मैं अपना हाथ छुड़ा कर तेजी से बाहर भागी- “रेवा, मैं बाद में आऊँगी ....” कहती हुई मैं भाग चली। रास्ते में फिर महरी दिख गई। बोली, “क्यों, रानी, लौट काहे आई? अरे, तुम्हारी चिठिया बहू जी ने पढ़ी थी, वो तुम से बहुत खुश हैं। जावौ तुम्हें डबल हिस्सा मिलेगा।“
तो यह बात है! इस महरी की बच्ची ने ही सारी गड़बड़ की..... पर रेवा का तो सचमुच आज ही जन्म-दिन है। छिः आज का दिन कोई पैदा होने का दिन होता है। तभी बुद्धू जैसी दिखती है..... पर...हाय! कितनी बढ़िया-बढ़िया चीजें थी पाँचू की प्लेट में!
मम्मी घर में होतीं, तो उनसे ही जल्दी से घर में से ही कुछ निकलवा कर रेवा के लिए ले जाती, पर उन्हें भी पार्टी में आज ही जाना था। साथ में टिंकू को भी ले गईं.... मैं यहाँ.... भगवान करे वह भी वहाँ खूब बुद्धू बनाई जाएँ!
मुझे इतना रोना आया कि पलंग पर गिरकर खूब रोई। तभी बहादुरे ने आ कर पूरा पैकेट खोल डाला” मिन्नी, यह क्या है? क्या लाई है तू....?”
“सिर लाई हूँ तेरा!” मैंने पैकेट उसके हाथ से झपटना चाहा कि उसमें से खुलकर सारे कागज और पत्थर भी नीचे गिर पड़े, जिन पर लिखा था “अप्रैल फूल!”
इतनी छोटी-सी तो हूँ मैं। मैं क्या कहानी-किस्सा कुछ कह पाती हूँ? पर बात यह हुई कि इस बार होली पर हमारी नई-नई चाची, जिनकी अभी चार महीने पहले ही शादी हुई है, हमारे यहाँ आने वाली थीं। पर शायद यह भी कहने की कोई बात नहीं है। मुझे जहाँ तक मालूम है शुरु में सभी बहुएँ जब मायके से आती हैं, तो थोड़ी-बहुत मिठाई साथ लाती ही हैं। पिंकी की भाभी दस किलो मोतीचूर के लड्डू लाई थीं। लाईं तो वह दो-ढाई किलो गुलाबजामुन भी थीं। पर पिंकी मुझे बता रही थी कि उसकी अम्मा ने सारी गुलाबजामुन छिपा ली थीं, किसी को भी बताया नहीं। और पाँचू की मामी जब आई थीं, वह भी अपनी माँ के घर से टोकरों मिठाई लाई थीं। उसकी ननिहाल के शहर के घर-घर में इतनी मिठाई बाँटी गई कि लोग मिठाई के नाम से भी ऊबने लगे। जब कभी भी मिठाइयों की बात चलती है, तो पाँचू हम लोगों को अपनी मामी के साथ आई एक-एक मिठाई की बातें ऐसे सुनाता है कि हमारे सबके मुँह में पानी भर कर जाता। इतनी मिठाई आई कि जिन कपड़ों में वे टोकरे बँध कर आए थे, सारी मिठाई खत्म होने के बाद भी, उनसे मुद्दत तक खुशबू आती रहीं।
और अब हमारी बारी है। हमारी चाची आएँगी और साथ में मिठाई तो कुछ लाएँगी ही, इतना अनुमान मैं क्या नहीं लगा सकती? पच्चीस-तीस किलो से क्या कम होगी वह। बात यह है कि हमारे बाबा और दादी तो बनारस में रहते हैं, सो वहीं से उन्होंने चाचा की शादी की थी। हम भी वहाँ पूरे दो महीने रहे। मिठाई-मिठाई सब वहीं खत्म हो गई। यहाँ हमारे मित्रों में बाँटने को मम्मी कुछ भी नहीं लाईं। और पाँचू की माँ अपने घर से एक छोटी टोकरी में बहुत-सी मिठाई लाई थीं। एक बालूशाही पाँचू ने मुझे भी चुपके से दी थी। बड़ी अच्छी थी। उसका स्वाद और खुशबू तो मुझे अभी तक याद है।
मम्मी कहती हैं, मिन्नी, तू बड़ी नदीदी है, तो मैं गुस्सा हो जाती हूँ। पर क्या बताऊँ, मिठाई की बात आते ही मेरी नाक में उसकी खुशबू ही नहीं भर जाती, बल्कि मुँह में स्वाद भी आ जाता है।
चाचा की चिट्ठी आई थी कि वह चाची के साथ चार-पाँच दिन को आ रहे हैं और यहीं से फिर बंबई चले जाएँगे, तो मैं खुशी के मारे उसी दिन बजरबट्टू बन गई। बजरबट्टू क्या होता है? हमें नहीं मालूम। हमारी मम्मी ही मुझ पर जब गुस्सा होती हैं, तो डाँट लगाती हैं “क्या बजरबट्टू-सी सारे में नाचती रहती है!’
हाँ, तो मैं पापा के मुँह से चाचा की चिट्ठी की बात सुनकर उसी दिन सारे बच्चों से, एक-एक के घर जाकर, बता आई कि ‘हमारे चाचा आ रहे हैं। साथ में चाची आ रही हैं अपनी अम्मा के घर से और मिठाई-सिठाई तो आएगी ही बहुत सारी।’
चाची अमीर घर की हैं। हमारी, पिंकी की, पाँचू की और दीना की, चारों कोठियाँ मिलादें ऐसा उनका एक महल है। महल में ऐसे बड़े-बड़े, ऊँचे-ऊँचे कमरे कि धीरे से बोलो तो भी आवाज ऐसी गूँजे जैसे लाउड स्पीकर पर बोल रहे हैं।
वीनू ने कई दिन से मुझसे और मेरे छोटे भाई टिंकू से खुट्टी कर रखी थी। जब उसने सुना कि हमारे चाचा-चाची आने वाले हैं, उनके साथ में ढेरों मिठाई आने वाली है, तो झटपट नाक-कान पर हाथ घर कर खुट्टी तोड़ कर हँसने लगी-‘वाह, मिन्नी, तुझसे क्यों खुट्टी करुँगी? तुम तो मेरी एकदम पक्की सहेली हो। वह तो दीना ने झूठमूठ बात लगा दी थी।‘
मैं सब जानती हूँ। वीनू ऐसी ही है। जब दूसरे का मतलब होता है, तो अपने घर में घुस जाती है, किसी से ढँग से बात भी नहीं करती, और जब अपना मतलब होता है, तो चट से पक्की सहेली बन जाती है। लालची कहीं की!
चाची के साथ आई मिठाइयों में कोई इमरती होगी तो जरुर इस वीनू को दे दूँगी। भला इमरती भी कोई मिठाई है?
पर यह न सोचे कोई कि चाची के आने से हमारे यहाँ बड़े मजे हो रहे हैं। ओफ! चाची क्या आ रही हैं कि पापा ने हम दोनों से फौज के जवानों जैसी कवायद शुरु करवा दी है।
सुबह-सुबह उठकर मैं वरांडे की सीढ़ियों पर बैठी ही थी कि पापा ने गरज कर आवाज दी “ऐ मिन्नी, इधर तो आओ।“
मैं डरते-डरते उनके पास पहुँची, तो डाँटते हुए बोले, “क्यों री, दस बजे सोकर उठी है और आलसियों की तरह सीढ़ी पर बैठ गई। तुझे नहीं मालूम कि खाट से उठकर ऐसे सीढ़ियों पर बैठना मनहूसों का काम है। तेरी चाची देखेंगी, तो क्या कहेंगी?”
चुप रही, क्या कहती? पापा जो ठहरे! पर मुझे क्या घड़ी देखनी नहीं आती! साढ़े सात बजे हैं और कहते हैं- दस बज गए। हुँ: !
रोज सुबह-सुबह पापा खाट पर पड़े-पड़े आवाज लगाते हैं-“अरे,यह कमबख्त बहादुर सिंह अभी तक चाय नहीं लाया। कहाँ मर गया!” मम्मी उठेंगी, सो इन्हीं सीढ़ियों पर बैठ कर कहेंगी-“अरे बहादुरे, तुझे एक कप चाय देने में भी बरसों लग जाएँगे। मेरी तो चाय के बिना आँखें भी नहीं खुल रही है!”
कल पापा मम्मी से कह रहे थे-“ऐ जी, जरा ढँग से रहना सीखो। बाल काढ़ती हो, तो धुटनों पर शीशा घर कर। फिर वहीं खाट पर ही शीशा छोड़ देती हो और वहीं कंघा।“
मम्मी बिगड़ गईं- “मैं तो अपनी अम्मां के घर से इतनी बड़ी ड्रेंसिंग टेबिल लाई थी, पर तुम्हारे लाड़ले ने गेंद मारकर शीशा तोड़ डाला, तो क्या मैं जाती उसे बनवाने? अरे, मेरे लिए नहीं, तो अपनी लाड़ली बहूरानी के लिए ही उसे बनवा दो न। कबाड़खाने में डाल दिया है मेरी ड्रेसिंग टेबिल को?”
पापा उसी दिन झटपट जाकर ड्रेसिंग टेबिल ठीक करवा लाए। मजदूर लगवाकर सारे घर की पुताई करवाई, सारा सामान खुद ही मजदूरों से जमवाया। वाह! हमारा घर तो एकदम चमाचम हो गया!
जरा-सी भी गड़बड़ देखते, तो पापा डाँटने लगते-“क्या गड़बड़ कर रखी है, क्या सोचेगी बहूरानी कि जेठ जी डिप्टी कलेक्टर हैं, पर ढँग से रहना भी नहीं आता।“
एक दिन मम्मी से बोले, “ए जी, सुनती हो? बहूरानी के घर के एक कमरे में ही इतना कीमती सामान लगा है कि हमारी पूरी कोठी में भी नहीं होगा।“
बात तो पापा एकदम ठीक कहते हैं। उनके ड्राइंग रुम में जो पीतल की बहुत बड़ी नटराज की मूर्ति रखी है, उसी के लिए बाराती लोग कह रहे थे कि हजारों रुपयों की होगी।
पापा की बात सुन कर मम्मी बिगड़ गई, “होंगी अमीर अपने घर की, हमें कौन कुछ दे जाएँगी!” पापा ने हाथ जोड़ दिए, “अच्छा, भली मानस, उनके सामने अपनी जबान कंट्रोल में रखना!” मम्मी जल-भुनकर कुछ कहतीं कि रसोईघर से सब्जी जलने की बास आई और वह उधर ही भागीं।
सब्जी उतारकर वह वहीं से चिल्लाईं-“ऐ, सुनते हो जी, तुम्हारी लाड़ली बहूरानी के घर में छः नौकर होंगे। उनकी अम्मां और वह पलंग से पाँव भी नीचे न धरती होंगी। वह आएगी, तो क्या कहेगी कि उसकी जिठानी हर समय चुल्हे से ही चिपकी रहती है.... शरम नहीं आएगी तुम्हें ..... यह कमबख्त बहादुरसिंह तो हर समय बाजार.....”
पर पापा बहादुरसिंह को लेकर बाजार जा चुके थे। मुझे और टिंकू को हँसी आ गई। मम्मी आज सचमुच दीवारों से बातें कर रही थीं!
अरे! जाने भी दो। बच्चों को मम्मी और पापा की बुराई नहीं करनी चाहिए। किताबों में लिखा है। इससे पाप लगता है।
मेरा दिमाग भी कितना खराब है। क्या कह रही थी, क्या कहने लगी। तभी मम्मी कहती हैं, “तू कुछ नहीं कर सकती। हर बात भूल जाती है।“ पिछले महीने मम्मी ने विमला आंटी से पुछवाया था कि वह अचार की मिर्चे लेने बाजार चलेंगी क्या?” रास्ते में मुझे छुन्नू मिल गया। बताने लगा कि उसकी मम्मी अस्पताल से आ गई हैं और उसके लिए एक नन्हा-सा भैया लाई हैं। सो मैं सब कुछ भूलभाल चटपट छुन्नू के साथ उसका भैया देखने भाग गई। बड़ा प्यारा-प्यारा मक्खन जैसा था। छुन्नू की मम्मी ने थोड़ी-सी देर को मेरी गोदी में भी लिटा दिया गया था उसे। घंटे भर बाद लौटी, तो बड़ी उमंग में कि मम्मी से जिद्द करुँगी कि वह भी अस्पताल जाकर जरुर एक छोटा-सा भैया ले आएँ। नहीं .... नहीं .... भैया नहीं! टिंकू कितना शैतान है! मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता। मम्मी से कहूँगी एक बहन लाए। छोटी-सी। कोई बहुत महँगी थोड़े ही होगी चार-पाँच सौ रुपये में आ जाएगी!”
मैं उछलती-कूछती चली आ रही थी कि दरवाजे पर ही मम्मी ने चपत जड़ी “इत्ती देर कहाँ लगा दी? विमला चलेंगी या नहीं?” फिर जैसे खुद से ही बोलीं, “अब क्या चलेंगी, शाम तो हो गई!”
मैं तो घबड़ा गई‘हाय! विमला आंटी के घर जाना तो भूल ही गई’, पर मम्मी से चटपट झूठ बोल दिया,” विमला आंटी के सिर में दर्द हो रहा है!”
मम्मी भी तो ऐसे ही झूठ बोलती हैं। पापा कमीज में बटन टाँकने को कह जाएँगे। मम्मी सारे दिन कहानी पढ़ती रहेंगी, जब पापा पूछेंगे तो चट से कह देंगी कि क्या करुँ! कल सारे दिन सिर में दर्द ऐसा होता रहा कि आँख भी न खोल सकीं!”
हाँ, तो मैं क्या कह रही थी? याद आया... चाची के साथ आने वाली मिठाई की बात।
तो मिठाई आना कोई ऐसी बात नहीं कि उसके लिए किस्सा-कहानी गढ़ने बैठ जाया जाए। तमाशा बना दिया पिंकी, पाँचू, वीनू, दीना और टिंकू ने। मैं तो बराबर मना ही करती रही थी। पर सबने दोष मुझ पर ही जड़ दिया कि मिन्नी ने ही अलमारी के ऊपर से कैंची उतारी थी। फिर जब चाचा-चाची आए, तो कैंची थी भी तो मेरे ही हाथ में। बिना बात फँस गई मैं तो!
बात यह हुई कि चाचा-चाची की ट्रेन सुबह आठ बजे आने वाली थी। पापा सुबह से ही अपनी कार लेकर स्टेशन चले गए थे। मम्मी कहती भी रहीं, “बेकार यह खटारा मत ले जाओ। इससे तो अच्छा यही होगा कि उन्हें पैदल ही ले आना!”
पापा अच्छे मूड में थे, सो हँसते-हँसते चले गए। छुट्टी का दिन था यानी इतवार। गाड़ी लेट तो रोज ही होती होगी, क्या पता आज एक घंटा पहले ही आ जाए। सो मैं और टिंकू सुबह ही नहा-धोकर, सजधज कर तैयार हो गए। किसी भी कार का हार्न सुनाई पड़ता, तो हम यही समझते जैसे चाचा-चाची आ गए। दौड़कर बाहर जाते। बाहर खेलते, तो मम्मी डाँटकर बुला लेतीं कि बाहर मत खेलो, कपड़े गंदे हो जाएँगे।
वैसे चाचा-चाची का तो इंतजार था ही हमें, पर हमारे मुँह में तो सुबह से ही उनके साथ आने वाली मिठाई का स्वाद बसा था। अहा, चौधरी स्वीट हाऊस की मिल्क पुडिंग की कैसी बढ़िया खुशबू होती है! मुझे तो ऐसा लग रहा था जैसे सारे घर में मिठाई की खुशबू ही भरी हो!
आठ बजते न बजते पाँचू, वीनू, पिंकी, दीना, छुन्नू सब आ गए ऐसे सज-धजकर जैसे आज ही तो चाचा की बारात जाने वाली हो, और वे ही सब बाराती हों। नदीदे कहीं के! मैं तो कभी ऐसे किसी के घर नहीं जाती। वह तो पाँचू जब अपनी ननिहाल से मामा की शादी करके आया था, तो मैं कोई मिठाई खाने थोड़े ही गई थी, मैं तो अपनी नई किताब उसे दिखाने गई थी।
तो मरा खटारा चाचा-चाची को लेकर लौटा ग्यारह बजे। चाचा मम्मी से कह रहे थे, “दो घंटे गाड़ी लेट और एक घंटे खटारा लेट। आखिर ट्रेन से तो कम ही लेट रहा! भाभी, इस खुशी में मिठाई खिलाओ!”
मिठाई का नाम सुनते ही मेरे मुँह में फिर पानी आ गया। वाह, चाची के साथ आई बड़-सी पिटारी में से कैसी बढ़िया खुशबू आ रही है! लखनऊ की मिठाई है न। मैंने सोचा, मम्मी अब झटपट चाचा-चाची के साथ आई मिठाई की बड़ी-सी टोकरी को खोलकर सबका मुँह मीठा कराएँगी।
पर, मम्मी तो एक दम बुद्धू निकलीं। हँसते-हँसते बोलीं, ”हाँ-हाँ, प्रकाश भैया, मिठाई क्यों न खिलाऊँगी। कल इस खटारे की डायमंड जुबली मनाएँगे, तब इस पर बैठकर ताजमहल देखने चलना, वहीं मिठाई खाना। क्योंकि यह भी तो शाहजहाँ के जमाने का है न!
चाचा खिलखिलाकर हँस पड़े, “बस, फिर तो देख चुके ताजमहल....”
बस सब हँसने लगे और मिठाई की बात खतम। यह भी कोई हँसने की बात हुई? काम की बात करना तो कोई जानता ही नहीं!
और हम सोच रहे थे कि आज खाना नहीं खाएँगे। चाची के घर से आई मिठाई ही खाएँगे पेट भर। चौधरी स्वीट हाऊस की काजू की दालमोठ भी तो आई होगी। दालमोठ तो मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती, पर काजू बहुत अच्छे लगते हैं। खैर, कोई बात नहीं, मैं खाली काजू ही खा लूँगी।
अब देखो न, मैं अभी छोटी ही तो हूँ। पर मम्मी जब देखो डाँटती रहती हैं, “इत्ती धींगड़ी हो गई, नौ साल की, भगवान जाने कब अकल आएगी इसे।‘ (वैसे एक बात है, मम्मी पिंकी, पाँचू यानी सबकी मम्मियों से हमेशा यही कहती हैं- ‘अरे! हमारी मिन्नी तो देखने में एकदम लम्बी हो गई हैं। वैसे है तो अभी साढ़े छह ही साल की!’)
मैं तो फिर बात गड़बड़ कर गई। हाँ, तो मम्मी मुझे धींगड़ी कहती हैं, पर यह मम्मी खुद इतनी बड़ी हो गईं, इन्हें कौन अक्ल सिखाए? अब देखो, सुबह से बच्चे सब भूखे बैठे हैं कि चाचा-चाची के साथ मिठाई आएगी, तो खाएँगे। पर इन मम्मी को देखो, मिठाई-सिठाई की कोई बात ही नहीं। जैसे उन्हें मिठाई पसंद ही न हो।
चाची ही कहतीं कि इस पिटारी से मिठाई निकाल कर इन बच्चों को दे दो। सो उन्हें भी कुछ ध्यान नहीं।
पापा जी जल्दी-जल्दी आए और बोले, “अरे भई, मैं तो भूल ही गया था। जल्दी से खाना लगाओ। तीन बजे अखिल चला जाएगा। बहुत कह गए थे वे लोग कि प्रकाश और बहू आएँ, तो थोड़ी देर को ले आना। हम लोग तो आ नहीं पाएँगे।“
चारों जनों ने जल्दी-जल्दी खाना खाया और चल दिए अखिल चाचा के घर। इतना भी नहीं सोचा कि अखिल चाचा कलकत्ते जा रहे हैं, तो चाची के साथ आई थोड़ी-सी मिठाई उनके लिए भी ले चलें।
मैं और टिंकू रह गए घर में। थोड़ा बहुत खाना दोनों ने खाया ही। जब मिठाई खाने का मन हो, तो रोटी खाना क्या अच्छा लगता है क्या? पर सच, हम बच्चे बिचारे बड़े सीधे होते हैं!
पापा वगैरा के जाने पर पिंकी, छुन्नू, दीना, पाँचू, वीनू सब अपने-अपने घर खाना खाने चले गए। अभी तक तो मेरे लूडो से खेलते रहे थे, पर अब कब तक लूडो से खेलते। भूख भी तो लग रही होगी।
बहादुर ने चाची का सारा सामान ऊपर के कमरे में पहुँचा दिया, जिसे पापा ने चाची के लिए पहले से ही सजा दिया था।
पूरा एक घंटा लगा होगा उनका सामान जमाने में।
जब वह मिठाई की पिटारी उठाने लगा, तो मैं भी वहीं खड़ी हो गई। पता नहीं, बहादुर ने कहीं पटक-पटका दिया, तो चूरा ही बन जाएगा। यह लखनऊ की मिठाई है जी, लखनऊ की! कोई सुंदरम अंकल के घर के लड्डू नहीं, जो हथौड़े से तोड़ें, तो हथौड़ा टूट जाए, पर लड्डू न टूटे!
बहादुर ने पिटारी उठाई, तो एकदम नाक से सटा कर लंबी-सी साँस सींच कर बोला, “अरे वाह!”
“क्या बड़ी बढ़िया खुशबू आ रही हैं इसमें से?” टिंकू ने पूछा, तो बहादुर हँस दिया और टिंकू की नाक से पिटारी सटा दी “देख आ रही है न बढ़िया खुशबू!”
खुशबू तो मुझे भी बढ़िया लग रही थी। लखनऊ की मिठाई की। खुशबू के क्या कहने! मुझे तो नाम से ही खुशबू आने लगती है।
तभी पाँचू आ गया। टिंकू उछलते-उछलते बोला, “अरे पाँचू, देखो न चाची की मिठाई की पिटारी में से कैसी बढ़िया खुशबू आ रही है!”
“क्या मिठाई की पिटारी खोल ली?” पाँचू की आँखें चमकने लगीं।
“अजी, अभी कहाँ, तारीफ तो यही है। बिना खुले ही इतनी खुशबू आ रही है, तो खुलने पर कितनी आएगी! तुम्हारी मामी के घर की बालूशाही में से तो इसकी आधी भी खुशबू नहीं आ रही थी,” मैंने पाँचू को चिढ़ाने को कहा। पर वह तो बड़ा चंट निकला। ऐसे हँसता रहा कि जैसे उसे मेरी बात बुरी ही न लगी हो।
इतने में पिंकी, छुन्नू, वीनू और दीना भी आ गए। वीनू तो अपने बाग से एक सुंदर-सा फूल भी लाई मेरे लिए। बोली-“ले, मिन्नी, दीना ने तुझसे यही तो कहा था न कि तू ने मेरा फूल तोड़ा, सो मैं गुस्सा हो गई थी। ले, मैं तेरे लिए खुद फूल ले आई। अब तो मानती है न कि मैं तेरी एकदम पक्की सहेली हूँ।“
सच, कभी-कभी तो वीनू मुझे बहुत ही प्यार करती है। मैंने फूल अपने बालों में पिन से अटका लिया। टिंकू अपनी बुश्शर्ट में लगाने की जिद कर रहा था। पर कहीं लड़कियों के बालों से लड़कों की बुश्शर्ट में फूल ज्यादा अच्छा लगता है? कुछ भी नहीं मालूम इसे, एकदम बुद्धू है। खैर, हम सब ऊपर पहुँचे। पिटारी एक कोने में रखी थी, सौ मैंने आगे खिसका ली। खूब भारी थी। एकदम ऊपर तक भरी हुई।
टिंकू बोला, “दीदी, क्या इसमें हाथ डालकर एकाध टुकड़ा मिठाई का निकाला नहीं जा सकता? मुझे तो बड़ी भूख लगी है।“
पिंकी ने घबड़ाकर पूछा, “अरे, तो क्या तूने खाना नहीं खाया अभी तक?”
“खाया तो था, पर थोड़ा-सा,” टिंकू शरमा गया। और बुरा-बुरा मुँह बनाकर फिर मिठाई की पिटारी पर झुक गया।
छुन्नू, दीना और पाँचू पहले से ही पिटारी पर झुके यह देखने की कोशिश कर रहे थे कि कहीं कोई छेद मिल जाए, तो हाथ डालकर कुछ निकाला जाए।
पर सारी पिटारी को मोटे वाले लाल कपड़े में बाँध ऐसी बारीकी से सिया गया था कि एक छँगुलिया जाने की भी जगह नहीं थी।
“छिः, चाची के घर वाले हमें क्या चोर समझते थे कि मिठाई चुराकर खा जाएँगे,” मैंने कहा, तो सब हँसने लगे। कुछ सोच कर पाँचू बोला, “सुन, मिन्नी, यहाँ पर जरा दूर-दूर पर सिलाई है। अगर कैंची मिल जाए, तो थोड़ा काटकर अंदर हाथ डाला जा सकता है।“
टिंकू कैंची इधर-उधर ढूँढने लगा।
“अगर इतनी देर में चाचा-चाची आ गए, तो? कहेंगे बच्चे कितने नदीदे हैं,” मैंने कहा।
“नदीदे क्यों हैं, जी, मिठाई तो हमी लोगों के लिए है न,” टिंकू ने अकड़ कर कहा।
“और क्या हम लोगों ...... तुम लोगों के लिए नहीं, तो क्या वे साथ ले जाएँगे?” छुन्नू बोला।
“पर ऐसे अच्छा तो नहीं लगता,” पिंकी बोली।
“क्या अच्छा नहीं लगता, जी, मिठाई हमारे लिए है, हम खा रहे हैं। फिर उन्हें पता भी क्या लगेगा। थोड़ी-सी तो निकालेंगे,” टिंकू फिर बोला।
अलमारी के ऊपर रखी कैंची मुझे दिख गई। जल्दी से मेज के ऊपर चढ़कर मैंने कैंची उतार ली।
पाँचू ने जल्दी से दो-चार धागे काटे और सिलाई उधेड़ने लगा।
“ज्यादामत उधेड़ना, पाँचू,” मैं चिल्लाई। तब तक क्या देखती हूँ कि इस शैतान की आँत टिंकू ने दूसरी तरफ से भी सिलाई काट डाली है।
“हाय राम, यह तूने क्या किया, कमबख्त!” मैं घबड़ा कर चीखी, सिलाई तो पूरी ही उधड़ गई। हमें तो सीना भी नहीं आता, जो जल्दी से सी दें। उधर मम्मी का भी डर लग रहा था। कहीं इन सबने ज्यादा मिठाई खा ली, तो मम्मी मुझे कितना मारेंगी। फिर तो शायद मुझे एक टुकड़ा भी खाने को न दें। मैंने टिंकू के हाथ से कैंची छीन ली और जैसे ही उसे मारने को हाथ उठाया कि देखा दरवाजे पर चाचा और चाची दोनों खड़े हमें घूर रहे हैं।
डर और घबड़ाहट के मारे मेरे हाथ से कैंची छूट कर गिर पड़ी। लगा कि अभी बेहोश होकर गिर जाऊँगी।
“ओफ्फोह, ये बच्चे कितने शैतान हैं?” चाची अपनी बारीक-सी आवाज में चीखीं।
टिंकू जो पापा से भी नहीं डरता, चाची की आवाज से डरकर उसने टोकरी के अंदर डाला अपना हाथ बाहर खींचा और हम सबने आँखें फाड़कर देखा उसके हाथ में लाल सुनहरी रंग की एक चप्पल लटकी है!
“क्या? चप्पल!” सब एक साथ चीख पड़े।
टिंकू ने चाची की परवाह किए बिना एकदम पिटारी का ढक्कन खोल दिया। उसमें रंग-बिरंगी तरह-तरह की चप्पलें, जूते, सेंडिल भरे थे ऊपर तक। “अब बताओ मैं कैसे बंद करुँगी इसे? इतनी मेहनत से चंदू ने सिया था इसे। आखिर तुम लोगों ने इसे खोला ही क्यों?” लगा चाची रो ही पड़ेंगी। पिटारी में चप्पलें देखते ही सब के सब छूमंतर हो गए। मिठाई होती, तो क्या ऐसे ही भाग जाते! पकड़ी गई मैं। “हम समझे थे इसमें आप हमारे लिए मिठाई लाई हैं,” टिंकू ने अटक-अटक कर कहा। इस पर चाचा लगे जोर-जोर से हँसने और हँसते ही चले गए। हुँ! यह भी कोई हँसने की बात है। हमें तो रोना आ रहा है! और चाची भी तो रुआँसी हो गई हैं, टिंकू की बात सुनकर वह एकदम मेज पर पड़ा अपना पर्स उठा कर नीचे चली गईं। जरुर मम्मी से हमारी शिकायत करने गई होंगी। किसी तरह नीचे आकर मैं अपने पढ़ने के कमरे में चुपचाप बैठकर स्कूल का काम करने लगी। कितना सारा काम दिया था टीचर ने, पर इन चाचा-चाची के आने की खुशी में सब भूल ही गई थी।
छिः ! चाची-फाची! होली का सारा मजा ही किरकिरा हो गया! कक्षा: नौवीं | आज सुबह से मीना की आँखों में बार-बार आँसू भर आते हैं। रह-रह कर उसे वह दिन याद आ रहा है जब वह पहली बार स्कूल गई थी। कितना उत्साह, कितनी प्रसन्नता थी उसे स्कूल जाने में। नए-नए कपड़े, नई-नई पुस्तकें और नया-नया शानदार बस्ता! सब कुछ उसे अपनी गुड़िया से भी अधिक प्यारा लग रहा था।
उसके साथ उसके माँ और पापा भी कितने प्रसन्न थे। बार-बार उसे कितनी बातें प्यार से समझाते। स्कूल में कैसे बात करना, अध्यापिकाओं और लड़कियों से कैसा व्यवहार करना, मेहनत से पढ़ना और ध्यान से सुनना, बार बार न जाने कितनी बातें! उसे ऐसी अच्छी तरह याद है जैसे कल की ही बात हो। उसकी माँ बार-बार बड़े उत्साह से उसके पापा से कहतीं- ‘देखो, मीना के स्कूल में सब बड़े-बड़े आदमियों के बच्चे पढ़ते हैं, उसके लिए भी बढ़िया-बढ़िया कपड़े लाना!
आज वे सब बातें याद करके उसे वैसी गुदगुदी नहीं होती, जैसी कि बचपन की बातें याद करके होती है। आज तो उसकी आँखें भर-भर आतीं हैं। कैसा अचरज है, आज उसी का प्यारा इकलौता बच्चा स्कूल जा रहा था, पर उसे कहीं कोई उत्साह या उमंग अपने अंदर नहीं लगती, बल्कि एक अज्ञात भय से वह काँप रही है। न जाने कैसी बुरी-बुरी कल्पनाओं से उसका मन बेचैन है। तभी अनुपम स्कूल के लिए तैयार हो कर आ गया। उसने उसको छाती से चिपटा कर चूम लिया, “बेटा, देखो, तुम कभी गुस्सा मत करना। चाहे तुम्हें कोई कुछ भी कहे, चाहे कितना भी चिढ़ाए, पर तुम बस मुस्करा देना समझे, बेटा?“ अनुपम मुस्करा दिया,“क्यों, माँ, मैं क्या कभी गुस्सा करता हूँ?” “नहीं, घर में तो गुस्सा नहीं करते, पर बेटा, वहॉं स्कूल में बहुत सारे लड़के होंगे, अच्छे भी, बुरे भी, जो बात-बात पर झगड़ा करते हैं, बिना बात छेड़ते हैं, चिढ़ाते हैं, परेशान करते हैं, तो, बेटा, तुम झगड़ा न करना, चिढ़ना नहीं, रोना भी नहीं।“
“नही, माँ, तू क्यों परेशान होती है? मैं रोऊंगा भी नहीं, चिढ़ूँगा भी नहीं और गुस्सा भी नहीं करुँगा। चाहे कोई कुछ भी कहे,” अनुपम ने बड़े प्यार से माँ की गोदी में बैठ कर कहा।
अनुपम बड़ा सुंदर प्यारा बच्चा है। इस समय उसकी आयु लगभग दस वर्ष की है और आज वह पहली बार ही स्कूल जा रहा है। अभी तक वह मास्टरजी से घर पर ही पढ़ता रहा है। पढ़ने में वह बड़ा तेज है और उसके मास्टर उसकी बुद्धि की सदा तारीफ करते हैं। उन्हीं के जोर देने और समझाने पर उसे आज स्कूल भेजा जा रहा है। उसकी माँ मीना तो उसे भेजने को तैयार ही न होती थी। उसको अनुपम के स्कूल भेजने की कल्पना से ही डर लगता था। पर अब कब तक उसे घर पर रोका जा सकता था। कब तक वह घर पर पढ़ सकता था। बाहर के बच्चों के साथ मिलेगा नहीं तो उसका पूरा जीवन पार नहीं लग सकता।
और इस संशय या भय के पीछे एक कारण था कि अनुपम के बायां हाथ तो कोहनी से ऊपर था ही नहीं और दाहिना हाथ था तो, पर कुछ टेढ़ा था। इस टेढ़े हाथ से लिखने में आरंभ में उसे बहुत मेहनत करनी पड़ी थी, पर अब वह बिल्कुल आसानी से जल्दी-जल्दी लिख लेता था।
और इसी लिए मीना डरती थी कि सब लड़के उसके बच्चे को चिढ़ाएंगे, नकले उतारेंगे और संभव है मारें भी। पर वह बेचारा न तो मारपीट कर सकता है, न अपने अपमान का बदला ले सकता है। बस सिवाय रोने और दुखी होने के उसके पास कोई चारा नहीं रहेंगा। जब अनुपम का जन्म हुआ था, मीना उसे देखकर बहुत रोई थी। उसके पति अशोक भी बहुत दुखी थे। पर उनकी माँ ने दोनों को समझाया था। रोती क्यों हो बहू! देखो बच्चा कितना प्यारा है। यह तो दुनियां में नाम करेगा। इसे भगवान का वरदान समझो.... यह अनुपम है अनुपम। और उसका नाम अनुपम उन्हीं ने रखा था। अनुपम अपने पापा के साथ स्कूल गया। स्कूल बाहर से ही बड़ा सुंदर लग रहा था, अनुपम को बड़ा अच्छा लगा। बहुत सारे लड़के एक जैसी ड्रेस में इधर-उधर खेल रहे थे। उसको आश्चर्य हो रहा था कि इतनी अच्छी जगह, जहॉं इतने सारे साथी हों, माँ उसे क्यों नहीं भेजना चाहती थी।
अनुपम के हेड मास्टर ने उसकी एक छोटी-सी परीक्षा लिखने और पढ़ने की ली और प्रसन्न हो कर उसका दाखला छठे दर्जे में कर लिया। फिर चपरासी से उसे उसके दर्जे में पहुंचवा दिया। अनुपम के पापा घर चले गए।
जब वह नई कक्षा में पहुँचा, तो सारे लड़के खूब शोर कर रहे थे और इधर से उधर डेस्कों और बेंचों पर कूद रहे थे। एक-दो लड़के बोर्ड पर टेढ़ी-मेढ़ी तस्वीरें बनाने में व्यस्त थे। एक महाशय मास्टर साहब की मेज पर बैठे जोर-जोर से कुछ चीख रहे थे। ऐसा लगता था जैसे ढेर सारे बंदर किसी जंगल से ला कर कक्षा में छोड़ दिए गए हों। अनुपम को दरवाजे पर खड़ा देख कर पहले तो सारे लड़के एक दम चुप हो गए, फिर एकाएक खिल-खिला कर हँस पड़े। एक बड़ा शैतान-सा लड़का उसके पास आया और बड़ी अदा से उसका हाथ पकड़ कर बोला, “ओह! आपका यह हाथ तो बड़ा सुंदर है! कहिए, किस अजायब घर से छूट कर चले आ रहे हैं!”
अनुपम हक्का-बक्का रह गया। ऐसी बातें उसने कभी नहीं सुनी थीं। वह आँखें फाड़े कभी एक को देखता, कभी दूसरे को। अब तक लड़के उसे चारों ओर से घेर कर खड़े हो गए थे।
इतने में पीछे से एक लड़का चिल्लाया- “अरे, यह तो दुष्मनों की कैद से छूट कर आ रहे हैं शायद!” “हॉं! हॉं! अपने हाथ वहीं बांट आए हैं!” एक और चिल्लाया और सारे लड़के खिलखिला कर हँसने लगे। क्रोध और अपमान से अनुपम का मुँह लाल पड़ गया। उसे लगने लगा कि या तो वह लड़कों को पीट देगा या फिर चीख कर रो पड़ेगा। पर उसे अपनी मां की बातें याद आने लगीं- ‘बेटा, रोना नहीं। बेटा, चिढ़ना नहीं। बेटा, गुस्सा मत होना.....” और वह जबरदस्ती अपना रोना रोक कर एक लड़के की तरफ देख कर मुस्करा दिया। उस लड़के को बेचारे अनुपम के ऊपर बड़ी दया आई। और भी एक दो सीधे-सादे लड़कों को अनुपम को छेड़ना बड़ा बुरा लग रहा था। पर पीछे से एक शैतान लड़ने ने नारा लगाया- लू.... और दूसरे ने .....ला कह कर पूरा कर दिया। और अब वे शैतान लड़के ‘लूला...लूला....’ कह कर ताली बजा-बजा कर गा रहे थे। और अनुपम को लग रहा था कि उसकी आँखों के सामने सारी कक्षा गोल-गोल घूम रही है। बड़ी कठिनाई से वह अपने को रोके हुए था। अब उसकी समझ में आ रहा था कि उसकी माँ उसे स्कूल भेजने में क्यों परेशान थी।
तभी कक्षा में मास्टर साहब ने प्रवेश किया और सब लड़के चुपचाप अपनी-अपनी जगहों पर जा बैठे। एक निगाह पूरी कक्षा पर फेंक कर मास्टर साहब ने रजिस्टर खोल कर हाजिरी ली और फिर रजिस्टर बंद करके उन्होंने कक्षा में नए लड़कों को खड़े होने की आज्ञा दी। तीन नए लड़कों के साथ अनुपम भी उठ कर खड़ा हो गया। मास्टर साहब का ध्यान सबसे पहले अनुपम की ही ओर गया। पर उन्होंने बारी-बारी से चारों नए लड़कों के नाम पूछे। फिर पहले उन तीनों लड़कों को और अन्त में अनुपम को उन्होंने अपने पास बुलाया और प्यार से उसकी पीठ पर हाथ रख कर बोले, “बेटा, इससे पहले तुम किस स्कूल में पढ़े हो?” “किसीमें भी नहीं। मैंने घर पर ही मास्टर जी से पढ़ा है,” मुस्करा कर अनुपम ने उत्तर दिया। “बहुत अच्छे, बहुत अच्छे! तो, बेटा, तुम लिख-पढ़ तो खूब लेते होगे?” “जी, लिख भी सकता हूँ, और पढ़ भी सकता हूँ।“ “बहुत अच्छे ....... तो हेड मास्टर साहब ने तुम्हारी परीक्षा ली या नहीं?” “जी, उन्होंने थोड़ी-सी हिंदी पढ़वाई थी, थोड़ी अंग्रेजी और एक सवाल करवाया था।“ “अच्छा तो, तुम हमें भी कुछ लिख कर दिखाओ न,” कह कर उन्होंने फिर उसकी पीठ थपथपाई। “जी, क्या लिखूँ?” अनुपम फिर मुस्करा दिया। “क्या लिखूँ....?... अच्छा तुम्हारा नाम क्या है?” “जी, अनुपम।“ “अनुपम! बहुत अच्छे..... तो तुम हमें अपना नाम ही लिख कर दिखाओ,” और उन्होंने मेज पर से चॉक उठा कर अनुपम के हाथ में पकड़ा दिया। उसने सोचा भी न था कि मास्टर जी उसे इतने बड़े बोर्ड के सामने लिखने को खड़ा कर देंगे। वह मन ही मन घबराता-सा आगे बढ़ा और श्याम-पट पर बड़ा-सा ‘अनुपम’ लिख दिया।
और अब के मास्टर जी के कुछ बोलने से पहले ही एक लड़का पीछे से चिल्लाया “बहुत अच्छे! बहुत अच्छे!” और सारी कक्षा के लड़के खिलखिला कर हँस पड़े। मास्टर साहब ने घूर कर जिधर से आवाज आई थी, उधर देखा और अपना डंडा जोर से मेज पर पटक दिया। लड़के तो शांत हो गए, पर अनुपम बेहद घबड़ा गया। उसकी आँखों में आँसू भर आए।
अनुपम का उतरा हुआ चेहरा देख कर मास्टर साहब को बड़ी दया आई। उन्होंने उसकी पीठ पर हाथ फेर कर प्यार से कहा, “लिखते तो तुम बड़ा सुंदर हो, पर तुमने पूरा नाम तो लिखा ही नहीं।“
“पूरा नाम? जी, पूरा नाम क्या होता है?” अनुपम ने घबड़ा कर पूछा। “ पूरा नाम जो सरनेम जोड़ने से बनता, और सरनेम वह जो तुम्हारे परिवार का नाम हो, जिससे बाहर वाले तुम्हें पुकारते हों।“ “जी!” अनुपम ने एक क्षण कुछ सोचा और ‘अनुपम’ के आगे बड़े-बड़े अक्षरों में ‘लूला’ लिख दिया। क्षण भर को सब सन्न्। तब मास्टर साहब ने कहा “लूला..... लूला तो तुम्हारा सरनेम नहीं है बेटा!" “जी, सरनेम ही है, इसी नाम से सब पुकारते हैं!” “अच्छा तुम्हारे पिताजी का पूरा नाम क्या है?” “जी, अशोक वर्मा।“ “अशोक वर्मा!.... वही वर्मा लिखो न, तुम्हारा पूरा नाम हुआ अनुपम वर्मा।“
न जाने कैसे एक क्षण में अनुपम का गुस्सा, रोना, दुख सब हवा में उड़ गया। वह तन कर खड़ा हो गया और मुस्करा कर बोला, “नहीं, मास्टर जी, नहीं, मेरा पूरा नाम तो यही है- “अनुपम लूला” एक नाम ‘अनुपम’ माँ-पापा का दिया हुआ है और एक सरनेम ‘लूला’ भगवान का दिया हुआ। है न मास्टरजी?” कहते हुए उसने अपनी कोहनी से कटा हुआ हाथ ऊपर उठा दिया और मुस्करा दिया। अब उसकी आँखों की कोरें भींग चली थीं और सारी कक्षा के लड़के चुपचाप सिर झुकाए हुए जड़ बने बैठे थे।
तभी अनुपम के पिताजी अशोक वर्मा चपरासी के साथ दरवाजे पर आ कर खड़े हो गए। घर पर मीना ने उन्हें बड़ा परेशान किया था कि “एक बार स्कूल जा कर देख आओ न, लड़के अनुपम को परेशान तो नहीं कर रहे।“ उन्हें देख कर अनुपम मुस्कराने लगा, “पापा!”
सब लड़कों के साथ मास्टरजी ने भी उधर देखा और लपक कर अशोक बाबू के पास पहुँच कर बोले, “आप ही का बेटा है अनुपम? हीरा है, साहब, हीरा! बिल्कुल अनुपम! साहब बड़े भाग्यवान हैं आप!” कहते-कहते उनकी आँखें भर आईं।
दरवाजे पर खड़े अशोक वर्मा ने बोर्ड पर बड़ा-बड़ा अनुपम लूला लिखा देख लिया था। वे घर लौट आये और पत्नी से कहा, “मीना अनुपम की चिंता करना छोड़ दो” उसने मुश्किलों से जूझना सीख लिया है। और अपनी माँ से कहा-“अम्मा, तुम्हारा बच्चा सचमुच अनुपम है।“ |
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