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MAGAZINES(COLLECTED FROM OFFICAL WEBSITES AND OTHER SOURCES)

DATE : 14TH OCT 2020

 

कक्षा: छठी

गल्लू सियार का लालच
गौरव गुप्ता की कहानी


मल्लू और गल्लू सियार भाई-भाई थे। मल्लू सीधा-सादा और भोला था। वह बड़ा ही नेकदिल और दयावान था। दूसरी ओर गल्लू एक नम्बर का धूर्त और चालबाज सियार था। वह किसी भी भोले-भाले जानवर को अपनी चालाकी से बहलाकर उसका काम तमाम कर देता था।

एक दिन गल्लू सियार जंगल में घूम रहा था कि उसे रास्ते में एक चादर मिली। जाड़े के दिन नज़दीक थे इसीलिए उसने चादर को उठाकर रख लिया। उसके बाद वह घर की ओर चल दिया।

अगले दिन गल्लू सियार मल्लू के घर गया। ठण्ड की वजह से दरवाजा खोला लेकिन जैसे ही गल्लू अन्दर जाने लगा, तो मल्लू ने दरवाजा बन्द कर लिया। गल्लू को अपने भाई की यह हरकत बहुत बुरी लगी। उसे अपने भाई पर बड़ा क्रोध आया।

भाई के घर से आने के बाद गल्लू नहाने के लिए नदी पर गया। उसको देखकर बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि आज सारे मोटे-मोटे जानवर बड़े बेफिक्र होकर बिना किसी डर के उसके पास से गुजर रहे थे। उसके पानी में घुसने से पहले जैसे ही चादर को उतारा, उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। सारे छोटे-मोटे जानवर अपनी-अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे। चारों ओर हाहाकार मच गया। गल्लू को लगा कि जरूर इस चादर का चमत्कार है। उसके मन में विचार आया कि कहीं यह जादुई तो नहीं। जिसको ओढ़ते ही वह अदृश्य हो जाता हो। तभी उसे याद आया कि मल्लू ने भी दरवाजा खटखटाने की आवाज सुनकर दरवाजा खोला और एकाएक बन्द भी कर लिया, मानो दरवाजे पर कोई हो ही नहीं।

अब उसका शक यकीन में बदल गया और उसे मल्लू पर किसी तरह का क्रोध भी नहीं रहा। वह नहाकर जल्दी से जल्दी अपने भाई मल्लू सियार के पास पहुँचना चाहता था। अत: लम्बे डग भरता हुआ उसके घर जा पहुँचा। उसने मल्लू को वह चादर दिखाई और प्रसन्न होते हुए बोला --

"देखो भाई, इस जादुई चादर को ओढ़ते ही ओढ़ने वाला अदृश्य हो जाता है। मैंने सोच है कि क्यों न इसकी मदद से मैं जंगल के राजा को मारकर खुद जंगल का राजा बन जाऊँ। अगर तुम मेरा साथ दोगे तो मैं तुम्हें महामंत्री का पद दूंगा।

"भाई गल्लू, मुझे महामंत्री पद का कोई लालच नहीं। यदि तुम मुझे राजा भी बना दोगे तो भी मैं नहीं बनूँगा क्योंकि अपने स्वामी से गद्दारी में नहीं कर सकता। मैं तो तुम्हें भी यही सलाह दूंगा कि तुम्हें इस चादर का दुरूपयोग नहीं करना चाहिए।"

"अपनी सलाह अपने पास ही रखो। मैं भी कितना मूर्ख हूँ जो इस काम में तुम्हारी सहायता लेने की सोच बैठा," गुस्से में भुनभुनाते हुए गल्लू सियार वहाँ से चला गया पर मल्लू सोच में डूब गया।

"अगर गल्लू जंगल का राजा बन बैठा तब तो अनर्थ हो जाएगा। एक सियार को जंगल का राजा बना देखकर पड़ोसी राजा हम पर आक्रमण कर देगा। शक्तिशाली राजा के अभाव में हम अवश्य ही हार जायेंगे और हमारी स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी। यह सोच कर मल्लू सियार सिहर उठा और उसने मन ही मन गल्लू की चाल को असफल बनाने की एक योजना बना डाली।

रात के समय जब सब सो रहे थे तब मल्लू अपने घर से निकला और चुपचाप खिड़की के रास्ते गल्लू के मकान में घुस गया। उसने देखा कि गल्लू की चादर उसके पास रखी हुई है। उसने बड़ी ही सावधानी से उसको उठाया और उसके स्थान पर वैसी ही एक अन्य चादर रख दी जो कि बिल्कुल वैसी थी। इसके बाद वह अपने घर आ गया।

सुबह उठकर नहा-धो कर गल्लू सियार शेर को मारने के लिए चादर ओढ़कर प्रसन्नतापूर्वक उसकी माँद की ओर चल पड़ा। आज उसके पाँव धरती पर नहीं पड़ रहे थे। आखिर वह अपने को भावी राजा समझ रहा था। माँद में पहुँचकर उसने देखा कि शेर अभी सो रहा था। गल्लू ने गर्व से उसको एक लात मारी और उसको जगा कर गालियाँ देने लगा। शेर चौंक कर उठ गया। वह भूखा तो था ही, उपर से गल्लू ने उसको क्रोध भी दिलाया था, सो उसने एक ही बार में गल्लू का काम तमाम कर दिया।

मल्लू सियार को जब अपने भाई की यह खबर मिली तो उसको बड़ा दुख हुआ पर उसने सोचा कि इसके अलावा जंगल की स्वतंत्रता को बचाने का कोई रास्ता भी तो नहीं था। उसकी आँखों में आँसू आ गए, वह उठा और उसने उस जादुई चादर को जला डाला ताकि वह किसी और के हाथ 
में न पड़ जाए।

मल्लू ने अपने भाई की जान देकर अपने राजा के प्राण बचाए थे और जंगल की स्वतंत्रता भी।

कक्षा: सातवीं

गोटू और मोटू
- मीनाक्षी मिश्रा



गोटू और मोटू जोकर डंबो सर्कस में काम करते थे। वे दोनों अच्छे मित्र थे। गोटू बहुत लंबा और पतला था, जबकि मोटू छोटा व मोटा था।

एक दिन गोटू और मोटू सर्कस में करतब दिखा रहे थे। गोटू हवा में साबुन के बुलबुलों को पकड़ने की कोशिश कर रहा था। यह देख कर बच्चे हँसते हुए तालियाँ बजाने लगे।

उसी समय अचानक गोटू ने थोड़ासा साबुन वाला पानी जमीन पर उड़ेल दिया। फिर जैसे ही मोटू बुलबुले को पकड़ने के लिए ऊपर की ओर कूदा, फिसल कर नीचे गिर गया।

मोटू दर्द के कारण जोरजोर से चिल्लाने लगा, "हाय, मैं मर गया।"

गोटू और सर्कस देखने वाले बच्चों ने सोचा कि यह उसका दूसरा करतब है। इसलिए वे जोर जोर से हँसने लगे।

लेकिन मोटू को बहुत चोट आई थी। वह इस कारण भी दुखी था कि गोटू उस पर हँस रहा है। तभी उसने गोटू को सबक सिखाने का निश्चय किया।

'शो' के बाद उस रात जैसे ही सब लोग रात के खाने के लिए इकठ्ठे हुए, मोटू के दिमाग में एक विचार आया। उसने गोटू की प्लेट से २ पूड़ियाँ चुरा कर अपनी जेब में रख लीं। लेकिन गोटू को इस बात का पता न चला।

अगले दिन जब गोटू चमकीले लाल कपड़ों में शो के लिए तैयार हो रहा था, तभी मोटू ने उस की कमीज के पीछे पूडियों को लटका दिया। फिर उसने गोटू से कहा, "जल्दी करो, शो के लिए तुम्हें देर हो रही है।"

गोटू जल्दी से अपनी कैप पहन कर तंबू से बाहर आया तो ३-४ कुत्तों ने उसके पीछे चलना शुरू कर दिया। गोटू हड़बड़ाता हुआ शो के लिए चल दिया। साथ ही कुत्ते भी भौंकते हुए उसके पीछे-पीछे चलने लगे। मोटू कोने में खड़ा हँस रहा था। तभी सर्कस मैनेजर ने उन दोनों को आवाज दी, "गोटू मोटू तुम जल्दी से रिंग में जाओ।"

गोटू ने सर्कस कर्मचारियों की सहायता से कुत्तों से पीछा छुड़ाया और रिंग में पहुँचा। जब बच्चों ने गोटू की कमीज पर पूड़ियाँ लटकी देखीं तो उन्होंने सोचा कि यह भी उस के करतब का ही अगला भाग है। फिर एक पालतू कुत्ते ने पूड़ियों को सूँघ कर गुर्राना शुरू कर दिया।

लेकिन गोटू ने अपना खेल जारी रखा। उसने हवा में बुलबुले उड़ाने का करतब शुरू किया। मोटू बुलबुलों को पकड़ने के लिए कूदने लगा। तभी एकलंबा सा बुलबुला गोटू की कैप पर जा कर बैठ गया।

अब मोटू उछलने के बाद भी उसे नहीं पकड़ सका, क्योंकि उसका कद छोटा था। वह बुलबुले को पकड़ने के लिए नई योजना बनाने लगा। बच्चे उस दृश्य को देख कर बहुत खुश हो रहे थे। बाद में मोटू एक सीढ़ी लेकर आया और उसे गोटू के सामने लगा दिया। जब वह सीढ़ी पर चढ़ रहा था, तब एक दूसरा पालतू कुत्ता भीड़ में से बाहर आया और गोटू की कमीज पर लगी पूड़ियों पर झपटा। उसने गोटू को भी काट लिया।

गोटू दर्द के मारे अपना संतुलन खो बैठा। गोटू, मोटू और कुत्ता सभी धड़ाम से गिर पड़े। अब दोनों जोकर दर्द के मारे चिल्ला रहे थे, जबकि बच्चे यह देख कर हँसने लगे।

फिर गोटू और मोटू जल्दी से रिंग से बाहर आए। दोनों को अस्पताल ले जाया गया।

मोटू ने गोटू से माफी माँगी और कहा, "मैं नहीं जानता था कि मेरा यह मजाक हमें इस परेशानी में डाल देगा।" अब मोटू और गोटू ने निश्चय किया कि वे फिर ऐसी शरारत कभी नहीं करेंगे।

तभी पीछे से आवाज आई, "नहीं नहीं, ऐसा मत कहो। आज तुम दोनों की वजह से सर्कस का यह करतब बहुत कामयाब रहा है," सर्कस का मालिक मोटू और गोटू के लिए गुलदस्ता लिए खड़ा था।

गोटू व मोटू की आँखें खुशी के कारण चमकने लगीं।

कक्षा: आठवीं

गोपी लौट आया
- दर्शन सिंह आशट


जब स्कूल से घर आकर गोपी ने अपना बैग फर्श पर फेंका तो उस में से कुछ फटी हुई कापियाँ और पुस्तकें बाहर निकल कर बिखर गई।

उसकी माताजी, जो पहले ही किसी कारण निराश-सी बैठी थीं, ने जब यह देखा तो उनका पारा चढ़ गया। उन्होंने एकदम उसके गाल पर थप्पड़ जड़ दिया और बोली, 'मॉडल स्कूल में पढते हो। वहाँ यही सब सिखाते हैं क्या? कितने दिन से देख रही हूँ। कभी बैग फेंक देते हो, कभी मोज़े और जूते निकालकर इधरउधर मारते हो। सुबह से शाम तक जी तोड़ कर काम करती हूँ। फिर कहीं जाकर मुश्किल से हजार रूपया महीना मिलता है। पता है, कैसे पढ़ा रही हूँ तुझे? देखो तो सही, क्या हालत बनाई हुई कॉपी-किताबों की। शर्म नहीं आती क्या?'

गोपी की ऐसी आदतों से उसकी माताजी बहुत परेशान थीं। गोपी के पिताजी की एक हादसे में मृत्यु हो गई थी। घर का गुजारा बड़ी मुश्किल से चल रहा था। उसकी माताजी को यह चिंता भी रहती थी कि गोपी पढ़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं लेता।

उधर गोपी को अपनी माँ पर गुस्सा आ रहा था। पलंग पर पड़ा वह रोता रहा। कुछ सोच रहा था। अचानक उसके दिमाग में एक विचार कौंधा, 'क्यों न मैं पास वाले शहर में अपने दोस्त हैपी के पास चला जाऊँ। माताजी ढूँढेंगी तो परेशान तो होंगी।'

बस, फिर क्या था। वह माँ के घर से निकलने का इंतजार करने लगा और जैसे ही वे पड़ोस में किसी काम से गई, वह चुपके से घर से बाहर निकल लिया और बड़-बड़े कदम भरता हुआ चलने लगा। चलने से पहले उसने माँ के पर्स से बीस रूपये का एक नोट भी निकाल लिया।

कुछ देर बाद गोपी की माताजी घर आ गई। जब उन्हें गोपी कहीं नजर नहीं आया तो वे उसे ढंूढने लगीं। फिर उन्होंने सोचा कि वह अपने किसी दोस्त के पास गया होगा, थोड़ी देर में आ जाएगा।

धीरे-धीरे अँधेरा घिरने लगा और रात हो गई। गोपी अभी तक नहीं लौटा था। उसकी माँ की चिंता बढ़ने लगी। वह इस बात से बिलकुल बेखबर थीं कि वह कभी दौड़ता, तो कभी किसी साइकिल या स्कूटर से लिफ्ट लेता हुआ दूसरे शहर पहुँच गया होगा। वह अपने दोस्त हैपी का घर तो जानता ही था। हैपी के माता-पिता को इस शहर में आए दो साल से ज्यादा समय हो गया था। हैपी के पिताजी की इस शहर में बदली हो गई थी। इसलिये वह गोपी का स्कूल छोड़ कर चला गया था।

गोपी अभी हैपी के घर वाली गली में दाखिल हुआ कि उसने देखा, एक लड़का खंभे की ट्यूब की रोशनी में पढ़ने में व्यस्त था। वह उसके पास गया और उसे एकटक देखता रहा। फिर उसने पूछा, 'क्या कर रहे हो भाई?'

उस लड़के ने नजर उठाई और बोला, 'पढ़ रहा हूँ।' यह कहकर वह फिर पढ़ने लगा। गोपी के दूसरे प्रश्न ने उसका ध्यान भंग कर दिया। गोपी का सवाल था,
'कौन सी कक्षा में पढ़ते हो?'
'दसवी कक्षा में।' उत्तर मिला।
'कौन से स्कूल में?' गोपी की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी।
'स्कूल में नहीं प्राइवेट ।'

वह लड़का कुछ और पढ़ना चाहता था, लेकिन गोपी के सवालों ने उसका मन उचाट कर दिया। वह अपनी पुस्तकें समेटने लगा। उसका हर रोज रात को साढ़े दस बजे तक पढ़ने का नियम था।

बातों-बातों में गोपी को यह पता चल गया कि उस लड़के के माता-पिता नहीं हैं और वह साइकिल की एक दुकान पर मरम्मत का काम करता है।

गोपी ने उससे और भी कई बातें कीं। इतने मेहनती लड़के की बातें सुनकर गोपी सन्न रह गया। उसे यह भी पता चला कि वह हर साल आधे मूल्य पर पुरानी किताबें खरीदकर पढ़ता है। गोपी ने उसकी पुस्तके देखीं तो मन ही मन उसे शर्म आई। वह सोचने लगा, उसकी माँ तो उसे नई किताबें खरीदकर देती हैं और वह उनका ऐसा हाल बना लेता है जैसे वे दो-तीन साल पुरानी हों।

गोपी के मन को एकदम झटका-सा लगा। अपनी पुस्तकों और शिक्षा के प्रति ऐसा स्नेह? इतनी मेहनत? उसे अपने से ग्लानि-सी होने लगी। वह उस लड़के को दूर तक जाते हुए देखता रहा। फिर वह सोचने लगा, उसने जो कुछ भी किया, अच्छा नहीं किया। उसने फैसला किया कि वह माँ को सारी असलियत बता देगा और माफी माँग लेगा। अब वह अपनी किताबें भी संभाल कर रखेगा। उसकी कोई भी चीज इधर-उधर नहीं बिखरेगी।

गोपी काफी देर तक यही सब सोचता रहा। हालांकि एकबारगी उसका मन हुआ भी कि वह सामने दिख रहे हैपी के घर की घंटी बजा दे, लेकिन न जाने क्या सोच कर उसने ऐसा नहीं किया।

अब उसके कदम तेजी से पीछे की तरफ लौट रहे थे अपने घर की तरफ।

कक्षा: नौवीं

चतुर बिल्ली

एक चिड़ा पेड़ पर घोंसला बनाकर मजे से रहता था। एक दिन वह दाना पानी के चक्कर में अच्छी फसल वाले खेत में पहुँच गया। वहाँ खाने पीने की मौज से बड़ा ही

खुश हुआ। उस खुशी में रात को वह घर आना भी भूल गया और उसके दिन मजे में वही बीतने लगे।
 
इधर शाम को एक खरगोश उस पेड़ के पास आया जहाँ चिड्डे का घोंसला था। पेड़ जरा भी ऊँचा नहीं था। इसलिए खरगोश ने उस घोंसलें में झाँक कर देखा तो पता चला कि यह घोंसला खाली पड़ा है। घोंसला अच्छा खासा बड़ा था इतना कि वह उसमें खरगोश आराम से रह सकता था। उसे यह बना बनाया घोंसला पसन्द आ गया और उसने यहीं रहने का फैसला कर लिया।
 
कुछ दिनों बाद वह चिड्डा खा खा कर मोटा ताजा बन कर अपने घोंसलें की याद आने पर वापस लौटा। उसने देखा कि घोंसलें में खरगोश आराम से बैठा हुआ है। उसे बड़ा गुस्सा आया, उसने खरगोश से कहा, "चोर कहीं का, मैं नहीं था तो मेरे घर में घुस गये हो? चलो निकलो मेरे घर से, जरा भी शरम नहीं आयी मेरे घर में रहते हुए?"
 
 खरगोश शान्ति से जवाब देने लगा, "कहाँ का तुम्हारा घर? कौन सा तुम्हारा घर? यह तो मेरा घर है। पागल हो गये हो तुम। अरे! कुआँ, तालाब या पेड़ एक बार छोड़कर कोई जाता हैं तो अपना हक भी गवाँ देता हैं। यहाँ तो जब तक हम हैं, वह अपना घर है। बाद में तो उसमें कोई भी रह सकता है। अब यह घर मेरा है। बेकार में मुझे तंग मत करो।"
 
यह बात सुनकर चिड्डा कहने लगा, " ऐसे बहस करने से कुछ हासिल नहीं होनेवाला। किसी धर्मपण्डित के पास चलते हैं। वह जिसके हक में फैसला सुनायेगा उसे घर मिल जायेगा।
 
उस पेड़ के पास से एक नदी बहती थी। वहाँ पर एक बड़ी सी बिल्ली बैठी थी। वह कुछ धर्मपाठ करती नज़र आ रही थी। वैसे तो यह बिल्ली इन दोनों की जन्मजात शत्रु है लेकिन वहाँ और कोई भी नहीं था इसलिए उन दोनों ने उसके पास जाना और उससे न्याय लेना ही उचित समझा। सावधानी बरतते हुए बिल्ली के पास जा कर उन्होंने अपनी समस्या बतायी।
 
उन्होंने कहा, "हमने अपनी उलझन तो बता दी, अब इसका हल क्या है? इसका जबाब आपसे सुनना चाहते हैं। जो भी सही होगा उसे वह घोंसला मिल जायेगा और जो झूठा होगा उसे आप खा लें।"
 
"अरे रे !! यह तुम कैसी बातें कर रहे हो, हिंसा जैसा पाप नहीं इस दुनिया में। दूसरों को मारने वाला खुद नरक में जाता है। मैं तुम्हें न्याय देने में तो मदद करूँगी लेकिन झूठे को खाने की बात है तो वह मुझसे नहीं हो पायेगा। मैं एक बात तुम लोगों को कानों में कहना चाहती हूँ, जरा मेरे करीब आओ तो!!"
 
खरगोश और चिड़ा खुश हो गये कि अब फैसला हो कर रहेगा। और उसके बिलकुल करीब गये। फिर क्या? करीब आये खरगोश को पंजे में पकड़ कर मुँह से चिड्डे को नोच लिया। दोनों का काम तमाम कर दिया। अपने शत्रु को पहचानते हुए भी उस पर विश्वास करने से खरगोश और चिड्डे को अपनी जानें गवाँनीं पड़ीं।
 
सच है, शत्रु से संभलकर और हो सके तो चार हाथ दूर ही रहने में भलाई होती है।