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DATE : 28TH OCT 2020

 

कक्षा: छ्ठी


बेंजी का बड़ा दिन
- नीलिमा सिन्हा
 

बड़े दिन की पूर्व संध्या थी। गलियाँ और बाजार परियों की नगरी जैसे सजे हुए थे। बाजार में सब दुकानों पर लाल, नीली, हरी, पीली बत्तियाँ तारों की तरह टिमटिमा रही थीं। सभी दुकानें जगमगा रही थीं। उनमें सजाया हुआ बड़े दिन का सामान मन को लुभा रहा था।

वहाँ तीन दुकानें ऐसी थीं जो क्रिस्मस पेड़ बेच रहीं थीं। छोटे, बड़े सभी तरह के पेड़ थे। उनमें कुछ असली थे, कुछ बनावटी भी थे। ये पेड़ बड़े आकर्षक ढँग से सजे हुए थे। सब चाँदी और सोने के रिबनों, रंगीन चमकदार गेंदों से सजे झिलमिला रहे थे।

बेंजी एक दुकान के बाहर खड़ा होकर एक पेड़ को देखने लगा। उसने सोचा, 'काश! किसी तरह मुझे यह पेड़ मिल जाये। सैमी और रूथ पेड़ पाकर कितनी खुश होंगी। फिर उनका यह सबसे बेहतर क्रिस्मस होगा।' उसे ध्यान आया उस पेड़ का जो उसने सबसे बड़ी दुकान में देखा था। 'मुझे वही खरीदना है' यह सोचकर वह अन्दर गया। उसने मालिक से उस पेड़ की ओर इशारा करते हुए दाम पूछे। दुकान के मालिक मोटे और गंजे मि. अब्राहम ने पहले ऊपर से नीचे तक बेंजी को देखा। फिर बेंजी की कमीज के दाई ओर पर बने छेद को एकटक देखने लगा। उस पर पड़ती दुकानदार की नजर बेंजी से छिपी नहीं रही। उसने अपने दोनों हाथ कुछ इस मुद्रा में उठाए कि दाएँ हाथ के नीचे वह छेद दब गया। 'वैसे भी।' उसने सोचा, "मेरे पास पूरे अठ्ठाईस रूपये हैं। इससे क्या फर्क पड़ता है कि मेरी 
कमीज में एक छेद है'।

"यह पैंतीस रूपये का है। क्या तुम खरीदना चाहते हो?" दुकानदार के मुँह से यह बात सुनकर बेंजी का सारा विश्वास छिन्न-भिन्न हो गया। उसे यह अहसास हो गया था जो पेड़ उसे इतना पसन्द आया है उसे वह खरीद नहीं सकता है। ये अठ्ठाईस रूपये जो उसने पूरे सप्ताह नुक्कड़ के ढाबे पर कठिन परिश्रम करके कमाए थे वे काफी नहीं थे।

उसने घंटो तक सैंकड़ो ग्राहकों को भाग-भाग कर भोजन परोसा था। वह अपनी छोटी बहनों सैमी और रूथ के लिए पेड़ खरीदना चाहता था। वह तो समझ रहा था कि पेड़ पच्चीस रूपये में ही आ जाएगा। बाकी तीन रूपये उसे और सजाने में काम आएँगे।

"क्या कह रहे हैं, मि. अब्राहम, पिछली बार तो यह केवल पच्चीस रूपये का ही था," बेंजी ने झिझकते हुए कहा।

"जरूर था। पिछले साल पच्चीस रूपये का ही था। पर तुम्हें मालूम है न तब से अब तक महँगाई कितनी बढ़ गई है। मेरी दुकान में कोई भी पेड़ पैंतीस रूपये से कम नहीं हैं।" मि. 
अब्राहम से कहा और पूछा, "जल्दी बोलो, तुम्हें लेना है या नहीं?"

दुकानदार की बात सुनकर बेंजी का चेहरा शर्म से लाल हो गया। ' कितना कठोर आदमी है' सोचते हुए वह खिन्न मन से बाहर निकल आया। अपनी परेशानी में दरवाजे के पास रखी रेत की बालटी से भी टकराते-टकराते बचा। जब दुकान में लोग उसके सारे पेड़ खरीद रहे हैं तो ऐसे में दुकानदार भला उसकी क्या परवाह करेगा। दुकान में भीड़ थी। मा
ता-पिता और बच्चे आपस में चिल्लाकर बात कर रहे थे कि उन्हें कौन-सा पेड़ पसन्द है।

"अब मैं कहाँ से बाकी के सात रूपये लाऊँ" बेंजी ने सोचा। उसे दुख यह था कि इस बार उसके छोटे से घर में कोई पेड़ नहीं होगा। उसे अपनी बहनों का विचार भी परेशान कर रहा था। उसने उन्हें अब की बार बड़े दिन का पेड़ लाने और उसे खूब सजाने के लिए, पूर्ण विश्वास के साथ, सामान लाने का वायदा किया था। यदि वह पेड़ नहीं ले गया तो उनके मन पर क्या बीतेगी। बल्कि उसने तो अपने मित्रों को भी आज रात खाने पर आने का निमंत्रण दिया था। पेड़ के बिना वह क्या मुँह लेकर घर जाएगा, और क्या 
अपने मित्रों को दिखाएगा।

शहर के दूसरे छोर पर बेंजी का छोटा-सा दो कमरों का घर था। वहाँ ऐसी दुकानों और सजावट कहाँ थी। बेंजी उदास मन लिए जेब में हाथ डाले जूते से पत्थरों को ठोकर मरता हुआ इधर से उधर घूमने लगा। बाज़ार के एक सिरे पर एक आधी बनी हुई इमारत खड़ी थी। शाम होने के कारण वहाँ बहुत वीरानी छाई हुई थी। बेंजी थोड़ी देर के लिए एक रेत के टीले पर जा बैठा। ठंड के मारे वह काँप रहा था। फिर उठकर बाजार में आ गया। सोचा, दुबारा पूछे। हो सकता है उन्होंने दाम गलत बता दिये हों। पर तभी दिमाग ने झटका दिया कि नहीं। वास्तव में सबसे छोटे पेड़ का मूल्य पैंतीस रूपये ही था।


'बस सात ही रूपये तो कम थे। मैंने क्यों नहीं पिछले हफ्ते और सात रूपये कमा लिये? और दो-चार दिन ढाबे में ज्यादा काम कर लेता तो कमा ही लेता। इसी तरह अपने ऊपर झल्लाते, पैर पटकते, उसने फिर अपने आपको उसी दुकान के सामने खड़े पाया। उसने खिड़की में से देखा, वह पेड़ अभी तक वहीं खड़ा था।


अचानक, उसने मिस्टर अब्राहम को दुकान से बाहर आते हुए देखा। वह अपने दोनों हाथ खुशी से मल रहे थे और काफी सन्तुष्ट लग रहे थे। वह दुकान के बाहर खड़े होकर लोगों को आते-जाते हुए देखने लगे।

जैसे ही बेंजी ने उधर देखा, दुकान के ऊपर लगा बड़ा निऑन साईन बोर्ड जो हरे और लाल रंग में टिमटिमा, टिमटिमा कर कह रहा था 'पेड़ बिक्री के लिए' वह धीरे-धीरे नीचे सरक रहा है। बेंजी ने आव देखा न ताव, उछल कर मिस्टर अब्राहम को धक्का दिया और उन्हें पीछे की ओर धकेल दिया। इस गुत्थम-गुत्था में दोनों जमीन पर लोटपोट हो गए। तभी वह बोर्ड धड़ाम से गिरा और टुकड़े-टुकड़े हो बिखर गया।

"क्या हुआ क्या ? दुकानदार एकदम घबरा गया था।

"ओह," बेंजी चिल्लाया, "तारों में से चिन्गारी निकल रही है।" जैसे ही वह कूदा तार एक गत्ते के 
डिब्बे से छू गये जो वहीं पड़े थे और तुरंत ही आग भड़क उठी। "ओह, ओह, आग! आग," सहमे से मि. अब्राहम चिल्लाये। वह अभी तक जमीन पर बैठे थे।

'आग' शब्द सुनते ही कुछ ही क्षणों में भीड़ एकत्रित हो गई। बेंजी एक झटके से उठा। उसे दुकान के पास रखी रेत की बालटी का ध्यान आया। वही बालटी जिससे वह पहले भी टकराया था। उसने बालटी की रेत आग पर फेंकनी शुरू कर दी और लोगों ने भी ऐसी ही बालटियाँ उठा लीं। कई लोग चिल्ला भी रहे थे कि "आग बुझाने वालों को बुलाओ।" इतनी भागदौड़ और गड़बड़ी के बाद खतरा टल गया। लोग उत्तेजित होकर बात कर रहे थे। किसी की आवाज सुनाई पड़ी, "यह वही लड़का है जिसने मिस्टर अब्राहम की जान बचाई। कितना चतुर है यह।" इशारा बेंजी की ओर था।

"और आग बुझाने में भी इसने कितनी फुर्ती से काम लिया, " किसी दूसरे ने कहा।

सारी बात सुन समझ कर मिस्टर अब्राहम भी मन ही मन बेंजी का गुणगान कर रहे थे।


भारी मन से उन्होंने बेंजी का कंधा दबा दिया। बोले, "मैं तुम्हारा किस तरह से धन्यवाद करूँ। तुमने आज मेरी जान बचाई है।"

"नहीं, नहीं, ऐसा न कहिए मिस्टर अब्राहम, आप सुरक्षित है यही मेरे लिए बहुत खुशी की बात है।" वह कुछ-कुछ शर्मिन्दा महसूस कर रहा था। "अब मुझे घर जाने की अनुमति दे," वह मुड़ने ही लगा था कि मि. अब्राहम ने शांत स्वर में कहा, "मुझे याद है, तुम कुछ घंटे पहले यहाँ आये थे।" जो पेड़ बेंजी लेना चाहता था उसी की ओर इशारा करते हुए उन्होंने पूछा, "तुम यही पेड़ लेना चाहते थे न?" बेंजी चुप था। "मैं तुम्हें यह पेड़ उपहार स्वरूप देना चाहता हूँ। देखो इसे स्वीकार कर लो। इससे मुझे बहुत खुशी 
होगी।"

बेंजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। अपने शरीर पर उसने दो-तीन जगह चिकोटी काट कर देखा कि वह सपना तो नहीं देख रहा था। उसकी आँखों में चमक आ गई। "धन्यवाद सर, पर आप को यह पैसे अवश्य लेने पड़ेंगे और बाकी पैसे मैं कुछ ही दिनों मे लौटा दूँगा।"

"नहीं, नहीं पैसे की बात करके तुम मुझे शर्मिन्दा मत करो, "मि. अब्राहम ने कहा। "मैं तुम्हें
 इसे उपहार के रूप में देना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ मेरी जान बचाने के बदले यह कुछ भी नहीं है, पर क्योंकि तुम्हें यह पसन्द आया था इसीलिए, " कहते-कहते वह रूक गए।

"ओह धन्यवाद सर, मेरी छोटी बहनें बहुत खुश होंगी। मैंने उनको आज रात पेड़ लाकर देने का वायदा किया था।"

"
तब तो तुम्हें अवश्य ही उन्हें निराश नहीं करना चाहिए, "मि. अब्राहम ने मुस्कराते हुए कहा। "एक मिनट रूको," कहते हुए वह अपनी दुकान के पीछे बने एक छोटे से कमरे में गायब हो गये। अगले ही क्षण वह अपने हाथ में एक गत्ते का डिब्बा लेकर वापस आये। "इसे भी पेड़ के साथ ले जाओ, इसमें कुछ सजावट का सामान है। और मेरी गाड़ी तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ आयेगी। नहीं तो फिर कोई समस्या आ खड़ी होगी।"

बेंजी जब घर पहुँचा तो उसे लगा जो गली अभी कुछ घंटों पहले तक ठंडी व वीरान लग रही थी अब खुशियों से भर गई है। उसे लगा कि हरी और लाल बत्तियाँ उसके हृदय को छू रही हैं। पेड़ उतारने के बाद, बेंजी ने ड्राइवर को एक पल के लिए रूकने को कहा, "मैं मि. अब्राहम के लिए कुछ भेजना चाहता हूँ।" घर के अन्दर तेजी से जा कर बेंजी ने एक कागज पर कुछ लिखा और एक लिफाफे में डालकर उसे बंद कर दिया और मि. अब्राहम को देने के लिए ड्राइवर को दे दिया। फिर सुख की सांस ली।

उस रात जब अमर और राहुल चले गये, और उसकी दोनों बहनें शाम के उत्साह से भरी सो गई, तब बेंजी उस पेड़ को देखने लगा जिसका प्रकाश पूरे कमरे में फैल रहा था। इतनी सारी सजावट थी, सुनहरी और चांदी के रंग के काँच के गोले, लाल, नीली, हरी और पीली बत्तियाँ, रंग-बिरंगे रिबन। पर सबसे अच्छा तो उसे चमकीला सितारा लगा था जो उन्हें उस गत्ते के डिब्बे में मिला था। जब भी वह झिलमिलाता था तो लगता कह रहा हो, "मैं यहाँ खुश हूँ।"

जब मि. अब्राहम ने वह लिफाफा खोला तो उन्हें उसमें कुछ रूपये और एक पुर्जा मिला। "कृपया यह अठ्ठाईस रूपये स्वीकार कीजियेगा। पिछले साल पेड़ की यही कीमत थी। मैंने ज्यादा काम नहीं किया था, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। क्रिस्मस की बधाई।

कक्षा: सातवीं

पुण्यकोटि गाय
- कन्नड़ लोक कथा


कलिंग नामक एक ग्वाला पहाड़ के निकट अपनी गायों के साथ बहुत सुख-सन्तोष से रहता था। उसकी गायों में पुण्यकोटि नाम की एक गाय थी, जो अपने बछड़े को बहुत प्यार करती थी। प्रतिदिन संध्या समय वह रंभाती और दौड़ती हुई घर लौट आती थी।

उसी पहाड़ में एक शेर भी रहता था। एक बार बहुत दिनों तक उसे कुछ खाने को नहीं मिला। उसने एक दिन शाम को पुण्यकोटि गाय को रोक कर कहा -- ' मैं तुम्हें अपना आहार बनाऊँगा।'

पुण्यकोटि ने शेर से विनय के साथ कहा - ' मुझे घर जाने दो, बछड़े को दूध पिलाने के बाद मैं स्वयं तुम्हारे सम्मुख हाजिर हो जाउंगी।'

पहले तो शेर ने उसकी बात न मानी, पर जब पुण्यकोटि ने विश्वास दिलाया कि वह निश्चय ही वापस आने का वचन दे रही है, तो शेर ने कहा -- 'अच्छा, तुम जा सकती हो, लेकिन अपना वचन निभाना न भूलना।'

गौशाला में बछड़े को दूध पिलाते समय पुण्यकोटि ने उसको वह समाचार दिया और आँखों में आँसू भर कर अपने बछड़े से विदा ली। बाहर निकलते समय उसने बछड़े से कहा -- ' बेटा, सावधानी से और नम्र भाव से रहना।'

फिर पुण्यकोटि ने अन्य गायों से कहा -- 'बहनों, मैं तो जा रही हूँ, लेकिन मेरे बछड़े को अपना बच्चा समझकर इसका ध्यान रखना।'

फिर पुण्यकोटि ने शेर के पास जाकर कहा -- 'लो, मुझे खा लो।'
शेर ने सोचा कि इतनी अच्छी गाय को अपना आहार बना लेना तो बहुत बुरा होगा। यह सोचकर उसने उस गाय को छोड़ दिया और आगे के लिए अन्य सब गायों को भी अभयदान दे दिया।

कक्षा: आठवीं

रघु और मैं
- नीलिमा सिंह


दीवाली की रात थी। सारे मुहल्ले में रंग-बिरंगी बत्तियां झिलमिल-झिलमिल कर रही थीं। मैं अपनी छत पर खड़ा देख रहा था। वह दृश्य मेरे मन को मुग्ध कर रहा था।

सामने वाला घर तेल के दीयों और मोमबत्तियों के प्रकाश से जगमगा रहा था। उसके छज्जे पर खड़ा लड़का एक के बाद एक पटाखे छोड़ता जा रहा था। उसने अनार जलाया जिससे रंग-बिरंगा फव्वारा फूट पड़ा। फिर एक रॉकेट छोड़ा। वह आवाज करता हुआ सर्र से ऊपर उड़ा। वह बहुत ऊँचाई पर जाकर आकाश में फटा तो उसमें से रंग-बिरंगे तारे निकलकर चारों ओर फैल गए।

मैं भी रॉकेट छोड़ना चाहता था। मैं भी अनार जलाना चाहता था और चमकती हुई फुलझड़ी को हाथ में लेने को उत्सुक था। मैं ललचाए मन से उसकी ओर देख रहा था कि उसने मुझे अपनी ओर घूरते हुए देख लिया।

"तुम भी पटाखे चलाओगे?" उसके पूछते ही मैंने हाँ में सिर हिलाया।

उसने एक पुराने कागज में कुछ लपेटा और मेरी ओर फेंक दिया। उसमें कई तरह के पटाखे और एक माचिस की डिब्बी थी। मैंने एक के बाद एक पटाखे छोड़ने शुरू कर दिए। बड़ा मजा आ रहा था।

"तुम्हारा नाम क्या है?" लड़के ने पूछा।
"अशरफ।"
"मेरा नाम रघु है," उसने कहा और इस प्रकार रघु और मै मित्र बन गए।

हम पड़ोसी थे। आमने-सामने के घरों में रहते थे। बस एक गली बीच में थी। न जाने क्यों, हमारे माता-पिता कभी आपस में नहीं मिलते थे। शायद एक-दूसरे को जानते भी न हों। लेकिन हमारी मित्रता दिन पर दिन गहरी होती जा रही थी। दोपहर को जब दोनों घरों में माता-पिता आराम करते, हम दोनों गुल्ली-डंडा, कंचे खेल रहे होते। यह हमारा रोज का नियम बन गया था।

रघु को मिठाई बहुत पसन्द थी। जब ईद आयी तो मैंने उसे बताया कि मेरी अम्मी बहुत स्वादिष्ट सेंवई बनाती हैं। सेंवई में डाले गये बादाम, किशमिश और ऊपर से लगाये चाँदी के वर्क से सजे होने की बात सुनकर उसके मुँह में पानी भर आया।

"तुम सेंवई खाने अवश्य आना," मैंने रघु को आमंत्रित किया।
"लेकिन आऊंगा कैसे? अम्मा आने नहीं देगी," रघु बोला।
"अपनी अम्मा को मत बताना बस।" वह मान गया।

ईद के दिन नया रेशमी कुरता और कसीदा कढ़ी हुई टोपी पहन कर मैं चमक रहा था। ये दोनों चीजें अब्बा कश्मीर से आज के दिन पहनने के लिए ही लाए थे। मैं अपनी सजधज रघु को दिखाने के लिए बेचैन था।

दोपहर में घंटी बजते ही मैंने लपक कर द्वार खोला। रघु था। अम्मी रसोई में अपनी सहेलियों के साथ व्यस्त थीं। उनकी एक सहेली ने पूछा, "कोन है?" तो मैंने तपाक से उत्तर दिया, "रघु।"
"वही रघु जो हमारे घर के सामने रहता है।
"अच्छा उन सामने वालों का लड़का है। लेकिन हमारा उनसे क्या वास्ता। उसे कहो कि वह चला जाये, "अम्मी की सहेली ने कहा।
"लेकिन क्यों?"
"बहस मत करो। जो कहा है, करो।"

इससे पहले कि मैं कुछ कहता, रघु मुड़कर आगे बढ़ गया। अम्मी की पुकार को अनसुनी करते हुए मैं उसके पीछे दौड़ा। "सुनो, मैं तुम्हारे लिए सेंवई ला रहा हूँ।"
"मुझे नहीं चाहिए, " उसने कहा।

मैं उसे जाने नहीं देना चाहता था। मैंने लपक कर उसको पकड़ लिया।
"मगर मैं चाहता हूँ कि तुम खाओ। ऐसा करो तुम स्टेशन के सामने वाले पार्क में आ जाओ। हम वहीं मिलेंगे और दोनों सेंवई खायेंगे।"
"तुम बहुत जिद्दी हो, अशरफ, " हँसते हुए रघु ने कहा।

मैंने अपने स्कूल के टिफिन बॉक्स में सेंवई भरीं और पार्क में जा पहुँचा। हम दोनों ने खूब चटखारे ले लेकर सेंवईं खाई। देखते ही देखते टिफिन बिलकुल साफ हो गया।

"मुझे समझ नहीं आता कि हमारे परिवार एक-दूसरे से बात क्यों नहीं करते?" रघु ने चिन्तित स्वर में पूछा।
"मुझे लगता है कोई पुराना झगड़ा है, मुगल काल के जमाने से ही हमारे पूर्वज यहाँ रहते आ रहे हैं।" "हमारे भी। वे यहाँ गदर के समय से हैं।"
"इतनी पुरानी शत्रुता बनाये रखना क्या मूर्खता नहीं है?"
"हाँ, है तो।"

इतने में हमारा ध्यान शोर से भंग हुआ। जहाँ से आवाज आ रही थी वहाँ पर भीड़ जमा थी। सफेद धोती, कुरता और टोपी पहने एक आदमी भाषण दे रहा था। तभी उसने गुस्से से मुक्का दिखाया, जिससे भीड़ ताली बजाने लगी। भाषण जैसे-जैसे जोर पकड़ता जा रहा था, भीड़ में भी उत्तेजना बढ़ती जा रही थी। भाषण खतम होते ही भीड़ उस आदमी के पीछे चल पड़ी।
"वे किधर जा रहे है?" हम दोनों एक साथ चिल्ला उठे।

रास्ता चलते एक व्यक्ति ने चेतावनी-सी दी, "ऐ बच्चे घर भाग जाओ। यह उत्तेजित भीड़ अवश्य ही कुछ हंगामा करेगी।" हम फौरन उठे और घर की ओर भागने लगे। भीड़ को उधर ही आते हुए देखकर हमें घबराहट होने लगी। हमने रास्ता काटकर पगडंडी पकड़ी ताकि भीड़ से पहले अपनी गली में पहुँच जाएं।

दुकानदार जल्दी-जल्दी दुकानें बन्द कर रहे थे। औरतें अपने-अपने बच्चों को पुकार रहीं थीं। गली में एकदम सन्नाटा छा गया था। बस हम दोनों ही वहाँ रह गए थे।

"अशरफ," रघु ने मुझे रोकते हुए कहा, "भीड़ थोड़ी देर में इधर आ जायेगी। ऐसा लग रहा है कि वे लोग लूटपाट करना चाहते हैं। हमें उन्हें आगे बढ़ने से रोकना होगा।"
"तुम पागल हो गए हो? वे क्या तुम्हारी बात सुनेंगे? मैंने चिल्लाते हुए पूछा।
"उन्हें सुननी ही पड़ेगी हमारी बात" रघु ने दृढ़ता से कहा। "उन्हें समझना पड़ेगा। जब हम दोनों बच्चे होकर भी मिलकर दीवाली और ईद मना सकते हैं तो वे बड़े और समझदार होकर भी हमारी तरह दोस्त क्यों नहीं बन सकते।"

रघु ने कसकर मेरा हाथ पकड़ा और मुझे ले चला और जाकर गली के मोड़ पर खड़ा हो गया। मुझे डरता देख उसने पूछा, "क्यों अशरफ तुमने गांधी फिल्म देखी थी न?"
"हाँ। पर..."
"बापू कभी नहीं डरे थे। तब भी नहीं जब उन पर लाठियां बरस रही थीं।"

जब भीड़ हमारे करीब आई तो हम एक-दूसरे का हाथ पकड़कर खड़े हो गये। हम चिल्लाये। भीड़ एकाएक अचकचा कर रूक गई।

"बच्चो! रास्ता छोड़ दो," उनका नेता गुर्राया। औरों ने भी हमें धमकाते हुए रास्ता छोड़ने और मार्ग से हटने को कहा।

हमने भी उसी तरह पूरा जोर लगाकर और चिल्लाकर कहा, "इस गली में हमारे घर हैं। हम तुम्हें अन्दर नहीं घुसने देंगे।"
"क्या, ये गुस्ताखी?"

हमने पत्थर उठा लिए और चिल्लाये, "चले जाओ यहाँ से, इससे पहले कि हम तुम्हें मारें।"

उनके नेता ने आगे बढ़कर पूछा, "क्या बात है? तुम हमें क्यों रोक रहे हो? हमें आगे बढ़ने दो।"
"नहीं, कभी नहीं।" हमने दृढ़तापूर्वक कहा।

अचानक एक गुण्डे किस्म के नौजवान ने रघु को जोर से धक्का दिया। वह मुँह के बल धरती पर जा गिरा। उसका सिर एक पत्थर से टकराया और माथे से खून बहने लगा। नेता ने उसे उठाया और पूछा, "चोट लगी है न? तुम्हारा नाम क्या है?"

रघु की चोट देखकर मैं आग बबूला हो गया। रघु उसकी बात का उत्तर देता इससे पहले ही मैं उस पर झपटा और दोनों हाथों से उसपर घूँसे बरसाने लगा। और घूँसे मारते-मारते उसकी बात का उत्तर देने लगा, "यह रघु है, मेरा मित्र। और मेरा नाम है अशरफ। हम दोनों इस गली में रहते हैं। और हम तुम्हें इस गली में कोई उत्पात नहीं मचाने देंगे।"

यह कहते हुए मुझे लग रहा था कि पूरी भीड़ मुझ पर टूट पड़ेगी। लेकिन भीड़ मूर्तिवत खड़ी थी। उनका नेता बुदबुदाया, "रघु और अशरफ!" फिर भीड़ की ओर मुड़कर बोला, "जब ये दोनों दोस्त हो सकते हैं तो हम क्यों नहीं हो सकते? चलो, सब लोग अपने-अपने घरों को लौट जाओ। मैं जा रहा हूँ इन दोनों के माता-पिता के पास यह बताने कि कितने बहादुर और बुद्धिमान हैं, उनके ये दोनों बच्चे।"

कक्षा: नौवीं

साहसी की सदा विजय
ओम प्रकाश कश्यप


एक बकरी थी। एक उसका मेमना। दोनों जंगल में चर रहे थे। चरते - चरते बकरी को प्यास लगी। मेमने को भी प्यास लगी। बकरी बोली - 'चलो, पानी पी आएँ।' मेमने ने भी जोड़ा, 'हाँ माँ! चलो पानी पी आएँ।'

पानी पीने के लिए बकरी नदी की ओर चल दी। मेमना भी पानी पीने के लिए नदी की ओर चल पड़ा।

दोनों चले। बोलते-बतियाते। हँसते-गाते। टब्बक-टब्बक। टब्बक-टब्बक। बातों-बातों में बकरी ने मेमने को बताया - 'साहस से काम लो तो संकट टल जाता है। धैर्य यदि बना रहे तो विपत्ति से बचाव का रास्ता निकल ही आता है।

माँ की सीख मेमने ने गाँठ बाँध ली। दोनों नदी तट पर पहुँचे। वहाँ पहुँचकर बकरी ने नदी को प्रणाम किया। मेमने ने भी नदी को प्रणाम किया। नदी ने दोनों का स्वागत कर उन्हें सूचना दी, 'भेड़िया आने ही वाला है। पानी पीकर फौरन घर की राह लो।'

'भेड़िया गंदा है। वह मुझ जैसे छोटे जीवों पर रौब झाड़ता है। उन्हें मारकर खा जाता है। वह घमंडी भी है। तुम उसे अपने पास क्यों आने देती हो। पानी पीने से मना क्यों नही कर देती।' मेमने ने नदी से कहा। नदी मुस्कुराई। बोली- 'मैं जानती हूँ कि भेड़िया गंदा है। अपने से छोटे जीवों को सताने की उसकी आदत मुझे जरा भी पसंद नहीं है। पर क्या करूँ। वह जब भी मेरे पास आता है, प्यासा होता है। प्यास बुझाना मेरा धर्म हैं। मैं उसे मना नहीं कर सकती।'

बकरी को बहुत जोर की प्यास लगी थी। मेमने को भी बहुत जोर की प्यास लगी थी। दोनों नदी पर झुके। नदी का पानी शीतल था। साथ में मीठा भी। बकरी ने खूब पानी पिया। मेमने ने भी खूब पानी पिया।

पानी पीकर बकरी ने डकार ली। पानी पीकर मेमने को भी डकार आई।

डकार से पेट हल्का हुआ तो दोनों फिर नदी पर झुक गए। पानी पीने लगे। नदी उनसे कुछ कहना चाहती थी। मगर दोनों को पानी पीते देख चुप रही। बकरी ने उठकर पानी पिया। मेमने ने भी उठकर पानी पिया। पानी पीकर बकरी मुड़ी तो उसे जोर का झटका लगा। लाल आँखों, राक्षसी डील-डौल वाला भेड़िया सामने खड़ा था। उसके शरीर का रक्त जम-सा गया।

मेमना भी भेड़िये को देख घबराया। थोड़ी देर तक दोनों को कुछ न सूझा।

'अरे वाह! आज तो ठंडे जल के साथ गरमागरम भोजन भी है। अच्छा हुआ जो तुम दोनों यहाँ मिल गए। बड़ी जोर की भूख लगी है। अब मैं तुम्हें खाकर पहले अपनी भूख मिटाऊँगा। पानी बाद में पिऊँगा।

तब तक बकरी संभल चुकी थी। मेमना भी संभल चुका था।

'छि; छि; कितने गंदे हो तुम। मुँह पर मक्खियाँ भिनभिना रही है। लगता है महीनों से मुँह नहीं धोया। मेमना बोला। भेड़िया सकपकाया। बगले झाँकने लगा।

'जाने दे बेटा। ये ठहरे जंगल के मंत्री। बड़ों की बड़ी बातें। हम उन्हें कैसे समझ सकते हैं। हो सकता है भेड़िया दादा ने मुँह न धोने के लिए कसम उठा रखी हो।' बकरी ने बात बढ़ाई।

'क्या बकती है। थोड़ी देर पहले ही तो रेत में रगड़कर मुँह साफ किया है।' भेड़िया गुर्राया।

'झूठे कहीं के। मुँह धोया होता तो क्या ऐसे ही दिखते। तनिक नदी में झाँक कर देखो। असलियत मालूम पड़ जाएगी।' हिम्मत बटोर कर मेमने ने कहा।

भेड़िया सोचने लगा। बकरी बड़ी है। उसका भरोसा नहीं। यह नन्हाँ मेमना भला क्या झूठ बोलेगा। रेत से रगड़ा था, हो भी सकता है वहीं पर गंदी मिट्टी से मुँह सन गया हो । ऐसे में इन्हें खाऊँगा तो नाहक गंदगी पेट में जाएगी। फिर नदी तक जाकर उसमें झाँककर देखने में भी कोई हर्जा नहीं है। ऐसा संभव नहीं कि मैं पानी में झाँकू और ये दोनों भाग जाएँ। "ऊँह, भागकर जाएँगे भी कहाँ। एक झपट्टे में पकड़ लूँगा।

'देखो! मैं मुँह धोने जा रहा हूँ। भागने की कोशिश मत करना। वरना बुरी मौत मारूँगा।' भेड़िया ने धमकी दी। बकरी हाथ जोड़कर कहने लगी, 'हमारा तो जन्म ही आप जैसों की भूख मिटाने के लिए हुआ है। हमारा शरीर जंगल के मंत्री की भूख मिटानै के काम आए हमारे लिए इससे ज्यादा बड़ी बात भला और क्या हो सकती है। आप तसल्ली से मुँह धो लें। यहाँ से बीस कदम आगे नदी का पानी बिल्कुल साफ है। वहाँ जाकर मुँह धोएँ। विश्वास न हो तो मैं भी साथ में चलती हूँ।'

भेड़िये को बात भा गई। वह उस ओर बढ़ा जिधर बकरी ने इशारा किया था। वहाँ पर पानी काफी गहरा था। किनारे चिकने। जैसे ही भेड़िये ने अपना चेहरा देखने के लिए नदी में झाँका, पीछे से बकरी ने अपनी पूरी ताकत समेटकर जोर का धक्का दिया। भेड़िया अपने भारी भरकम शरीर को संभाल न पाया और 'धप' से नदी में जा गिरा। उसके गिरते ही बकरी ने वापस जंगल की दिशा में दौड़ना शुरू कर दिया। उसके पीछे मेमना भी था।

दोनों नदी से काफी दूर निकल आए। सुरक्षित स्थान पर पहुँचकर बकरी रुकी। मेमना भी रुका। बकरी ने लाड़ से मेमने को देखा। मेमने ने विजेता के से दर्प साथ अपनी माँ की आँखों में झाँका। दोनों के चेहरों से आत्मविश्वास झलक रहा था। बकरी बोली --
‘कुछ समझे?'
'हाँ समझा।'
'क्या ?
'साहस से काम लो तो खतरा टल जाता है।'
'और?'
'धैर्य यदि बना रहे तो विपत्ति से बचने का रास्ता निकल ही आता है।'
'शाबाश!' बकरी बोली। इसी के साथ वह हँसने लगी। माँ के साथ-साथ मेमना भी हँसने लगा।